आज अध्यापक नहीं गुरु की ज़रूरत है-डॉ. गदिया

मेवाड़ ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस के चेयरमैन
डॉ. अशोक कुमार गदिया का विशेष साक्षात्कार
आज अध्यापक की नहीं गुरु की आवश्यकता है। जो केवल पाठ्यक्रम नहीं विद्यार्थियों को उनकी जिन्दगी जीने के श्रेष्ठ गुण भी प्रदान करे। हमें मार्गदर्शन करने वाले ठीक से तैयार करने होंगे, अध्ययन एवं  अध्यापन को समाज में सर्वाधिक प्रतिष्ठित कार्य माना जाना चाहिये। यदि हम यह सब करने में सफल होते हैं तो हम एक सभ्य समाज एवं सुदृढ़ राष्ट्र के निर्माण की ओर अग्रसर होंगे। तब हम असल में बन सकेंगे अध्यापक से बढ़कर एक अच्छे गुरू। यह कहना है लेखक, सामाजिक चिन्तक, विचारक और मेवाड़ ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस के चेयरमैन डॉ. अशोक कुमार गदिया का। गुरु बनने के लिए और क्या-क्या विशेषताएं होनी चाहिएं, इसके बारे में मेवाड़ ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस के चेयरमैन डॉ. अशोक कुमार गदिया से विशेष बातचीत की गई। प्रस्तुत हैं इसी बातचीत के प्रमुश अंश-

प्रश्न- आपकी नजर में गुरु की महिमा क्या है?
उत्तर-अखण्ड ब्रह्माण्ड में जो चर-अचर में विद्यमान है। गहनतम अज्ञान के वातावरण में जो ज्ञान के प्रकाश का आभास करवा देता है वही गुरु है। गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु महादेव है अर्थात् गुरु साक्षात् परम ब्रह्म है। सन्त कबीर कहते हैं-सब धरती कागज हो जाये, सारे वनों की लकड़ियाँ लेखनी हो जायें, सातों समुद्र का पानी स्याही हो जाये, तो भी गुरु की महिमा का वर्णन नहीं हो सकता।

प्रश्न-आज के दौर में गुरु कितना महत्वपूर्ण है?
उत्तर-गुरु की धारणा मौलिक रूप से पूर्वीय नहीं भारतीय है। गुरु जैसा शब्द दुनिया की किसी भाषा में नहीं है। शिक्षक, टीचर, मास्टर ये शब्द हैं। लेकिन गुरु जैसा कोई भी शब्द नहीं है। गुरु के साथ हमारा अभिप्राय ही भिन्न है। आज के समय में अध्यापन एक बिजनेस या एक प्रोफेशन भर रह गया है। पहले पैसा लेना और फिर पढ़ाना, प्रीपेड सर्विस हो गई है। बहुधा दिखाई देता है कि अध्यापक पढ़ाते हैं, किताबों का रट्टा लगवाते हैं या फॉर्मूला समझाकर सवाल हल करना सिखाते हैं। यह तो पढ़ाना हुआ, गढ़ना कहां हुआ? गुरु पढ़ाता ही नहीं, गढ़ता भी है। गढ़ने का मतलब है उसे एक आकार देना। गुरु का काम यही है, तपाकर उसे एक आकार देकर भविष्य के लिए तैयार करना, ताकि शिष्य कहीं मात न खाए और जीवन में हमेशा चमकता रहे। गुरु का काम बहुत बड़ा है। माता, पिता, भाई, बहन, तमाम रिश्तेदार, तमाम जानकार, जिनसे हमें दिन में कई बार संपर्क करना पड़ता है, सब हमारे गुरु हैं। सबके पास ज़िन्दगी के अनुभव हैं। हम उनके दैनिक क्रियाकलापों को देखकर ही बहुत कुछ सीखते हैं। गुरु गढ़ता है, आकार देता है, मंजिल देता है तथा जीवन को उद्देश्य मार्ग पर अग्रसारित करता है। आज हमें अपने विद्यार्थियों को गुरु की महत्ता के बारे में बताने की आवश्यकता है। उन्हें अध्यापक और गुरु के भेद को समझाना होगा। हमें उनको यह बताना चाहिए कि अध्यापक क्या है और गुरु क्या है? गुरु का हमारे जीवन में क्या महत्व है? अध्यापक गुरु से कैसे अलग है? गुरु और अध्यापक में से कौन बेहतर है?

प्रश्न-गुरु और अध्यापक में क्या अंतर है?
उत्तर-गुरु और अध्यापक में फर्क यह है कि अध्यापक सिर्फ अध्ययन कराने से जुड़ा है, जबकि गुरु अध्ययन से आगे जाकर जिन्दगी की हकीकत से भी रूबरू कराता है। उससे उपजी समस्याओं को निपटने के गुर भी सिखाता है। अगर इतिहास के पन्नों पर नजर दौड़ायें तो हमें कई जगह पर अपने धार्मिक ग्रंथों और कहानियों में गुरु की भूमिका, उनकी महत्ता और उनके पूरे स्वरूप के दर्शन हो जाएँगे। महाभारत में श्रीकृष्ण अर्जुन के सामने युद्ध के मैदान में गुरु की भूमिका में थे। उन्होंने अर्जुन को न सिर्फ उपदेश दिया बल्कि हर उस नाज़ुक वक्त में उसे थामा, जब-जब वह लड़खड़ाता नजर आया। लेकिन आज का अध्यापक इससे अलग है। अध्यापक गुरु हो सकता है पर किसी गुरु को सिर्फ अध्यापक समझ लेना ग़लत है। ऐसा भी हो सकता है कि सभी अध्यापक गुरु कहलाने लायक न हों, हज़ारों में से मुट्ठीभर अध्यापक ही आपको गुरु मिलेंगे। हमारे आस-पास मौजूद तमाम लोग, प्रकृति में व्यवस्थित हर चीज़ छोटी या बड़ी, जिससे कुछ सीखने को मिले, उसे हमें गुरु समझना चाहिए और उससे एक शिष्य के नाते पेश आना चाहिए। यूँ तो गुरु से ज्यादा महत्वपूर्ण शिष्य है। शिष्य से ही गुरु की महत्ता है। यदि कोई शिष्य उस गुरु से सीखने को तैयार नहीं है तो वह गुरु नहीं हो सकता। गुरुत्व शिष्यत्व पर निर्भर है।

प्रश्न- ऐसे कौन-से प्रश्न हैं जो अध्यापक को गुरुत्व की ओर ले जा सकते हैं?
उत्तर-
एक नहीं अनेक हैं। मैं 18 प्रकार से इन्हें समझा सकता हूं।

1.अध्यापक अपनी विषय-वस्तु में पारंगत हो। जो उसे पढ़ाना है, उसके बारे में उसे कोई संशय न हो और वह उसे पूर्ण आत्मविष्वास से पढ़ा सके।
2.अध्यापक का अध्यापन एवं उसकी भाषा साफ, सरल, रोचक एवं आकर्षक हो।
3. अध्यापक न सिर्फ पढ़ाये बल्कि इस बात की भी चिंता करे कि जो वह पढ़ा रहा है वह कमज़ोर से कमज़ोर और होशियार से होशियार बच्चे को समझ आ रहा हो।
4. अध्ययन एवं अध्यापन रुचिपूर्ण हो, उबाऊ बिल्कुल न हो।
5. अध्ययन एवं अध्यापन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हो। रोज़मर्रा की घटनाओं एवं परिस्थितियों को मद्देनजर रखते हुए उनके उदाहरण देते हुए हो।
6. अध्ययन एवं अध्यापन द्विपक्षीय प्रक्रिया है, इस बात का पूरा ध्यान रहे।
7. अध्यापन का माध्यम आधुनिक हो तथा हमेशा अपने विद्यार्थियों के स्तर को ध्यान में रखकर हो।
8. अध्यापक में अच्छी श्रवणशक्ति हो। वह अपने बच्चों की बात को  ध्यान से सुन सके।
9. अध्यापक अच्छा परामर्शदाता हो।
10. अध्यापक अपने नियमों के प्रति सुदृढ़ हो और पक्षपाती न हो।
11. अध्यापक अपनी विषय वस्तु को क्रमवार रूप में प्रस्तुत करने में सक्षम हो।
12. अध्यापक समर्पण भाव से पढ़ाये एवं दिल से पढ़ाये, दिमाग से कतई न पढ़ाये।
13. अध्यापक अपने बच्चों के प्रति स्वाभिमानी हो।
14. अध्यापक एक आदर्श व्यक्तित्व हो।
15. उसका अपनी कक्षा पर पूर्ण नियंत्रण हो एवं वह सबसे अपना सम्पर्क आसानी से बनाने में सक्षम हो।
16. अध्यापक ऊपर से सख्त एवं अन्दर से नर्म हो। उसका उद्देश्य केवल एक अच्छा व्यक्तित्व तैयार करना हो।
17. अध्यापक हमेशा सकारात्मक विचारधारा का हो।
18. अध्यापक सदैव जिज्ञासु एवं कुछ नया सीखने को तत्पर हो।

प्रश्न-विद्यार्थियों को विश्वास में कैसे लिया जाए?
उत्तर-
विद्यार्थियों के लिये एक मित्र, मार्गदर्शक एवं अच्छे गुरु का काम करना। ये सभी कार्य अध्यापक की सेवाकार्य का अनिवार्य हिस्सा हो, उसे इस काम को करना ही करना है और दिन-प्रतिदिन करना है। A teacher has to be a mentor or counselor and counseling must be an integral part of his/her duty. इसके साथ ही शैक्षणिक दिनचर्या ऐसी होनी चाहिये कि पढ़ने, पढ़ाने एवं काउंसिलिंग के अतिरिक्त ऐसी गतिविधियाँ, साँस्कृतिक कार्यक्रम लगातार करते जाना, जिससे विद्यार्थी एवं अध्यापकों का सर्वांगीण शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, साँस्कृतिक एवं संवेगात्मक बौद्धिक विकास हो, जिससे उनमें राष्ट्रभक्ति, समाज के प्रति संवेदनशीलता, राष्ट्र निर्माण एवं सामाजिक बुराइयों को खत्म करने का भाव हर समय जागृत हो। इस कार्य को करने के लिये हम निम्नलिखित कार्यक्रम कर सकते हैं-

1. समय समय पर विभिन्न महापुरुषों की जयन्तियाँ बहुत ही प्रभावशाली तरीके से मनाना। ताकि उस कार्यक्रम में सम्मिलित लोग पूर्णरूप से प्रभावित हों और उनमें ऐसा भाव पैदा हो, जिससे लगे कि हमारी रगों में उन महापुरुषों का रक्त प्रवाहित हो रहा है एवं हम इनकी संतान हैं। हमें वे सभी काम करने चाहिएँ जो इन महापुरुषों ने अपने समय और परिस्थितियों को देखते हुए किये।
2. समसामायिक विषयों पर परिचर्चा विषय के विशेषज्ञ को बुलाकर की जाए।
3. सामाजिक विषयों पर संगोष्ठी एवं सेमिनार आयोजित किए जाएँ।
4. सामाजिक एवं संवेदनशील विषयों पर नाटकों के मंचन किए जाएँ।
5. प्रेरणादायक, करूणापूर्ण, शिक्षाप्रद चलचित्र दिखाकर संस्कार दिये जाएँ।
6. समाजसेवा के लिये नवयुवकों को समाज में ले जाकर सामाजिक कार्य कराए जाएँ।
7. विभिन्न बीमारियों के निवारण, उपचार एवं रोकथाम के लिये स्वास्थ्य शिविर लगाए जाएँ।
8. सामाजिक, पारिवारिक, राष्ट्रीय एवं व्यवसायिक सोच रखने वाले पेशेवर व्यक्तित्व को बुलाकर व्याख्यान एवं प्रशिक्षण शिविर लगवाए जाएँ।
9. सांस्कृतिक कार्यक्रम जैसे गीत, संगीत, नाटक, समूह एवं एकल नृत्य, रंगोली, पोस्टर, वाद-विवाद, निबन्ध, समूह परिचर्चा, भूमिका निर्वाह आदि कार्यक्रम लगातार करवाए जाएँ।
10. खेलकूद, व्यायाम, भागदौड़, योग एवं ध्यान आदि कार्यक्रम आयोजित किए जाएँ।
11. एनसीसी, एनएसएस या स्काउट/गाइड संस्था को आमंत्रित कर उनके कार्यक्रम करवाए जाएँ।
इन सब कार्यक्रमों में युवा अपनी रुचि के अनुसार प्रतिभागी बनें। यह सुनिश्चित करें कि हर युवा एक या दो गतिविधियों में जरूर प्रतिभागी बनें, जिससे उसका सर्वांगीण विकास सुनिश्चित होगा। प्राथमिकता के स्तर पर हमें कौन से युवाओं को पढ़ाना चाहिये? किस पर सबसे पहले काम शुरू होना चाहिये? तो वह है गाँवां से ताल्लुक रखने वाले गरीब एवं उपेक्षित वर्ग के नौजवान एवं सुदूर इलाकों में रहने वाले युवा। कहने का मतलब है ऐसे युवाओं को प्राथमिकता से शिक्षित एवं प्रशिक्षित करना जिन तक कोई नहीं पहुँचता हो। Reaching to unreached’ and Serving Poorest of the Poor Section of Society’ यह मूलमंत्र होना चाहिये। यदि हम पूरी ईमानदारी एवं पूरी प्रमाणिकता से इस मिशन पर काम करेंगे तो समाज एवं राष्ट्र को जिम्मेदार नागरिक के रूप में युवा देंगे। इसमें कोई संदेह नहीं। वे ऐसे युवा होंगे जो आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता, निपुणता, अनुशासन, जिम्मेदारी, सामाजिक संवेदनशीलता, राष्ट्रभक्ति के भाव से भरे होंगे। जहाँ जायेंगे, सफल होंगे और अपनी छाप छोड़ेंगे। उससे बनेगा एक संवेदनशील एवं संस्कारी घर, परिवार एवं समाज और उससे बनेगा सुदृढ़ राष्ट्र। पर इस महान कार्य को करने के लिये हमें बनाने होंगे अच्छे अध्यापक। इसके लिये उनका ठीक से चयन करना होगा। उन्हें ठीक से प्रशिक्षित करना होगा। उन्हें ठीक से प्रोत्साहित करना होगा। जब तक अच्छा अध्यापक नहीं होगा, बच्चा अच्छा नहीं हो सकता, यह जान लीजिये। अच्छा अध्यापक होगा, प्रोत्साहन, प्रशिक्षण एवं उचित मानदेय से। तो आइये समाज एवं राष्ट्र निर्माण में अपना सहयोग दीजिये और लग जाइये अच्छा युवा एवं अच्छा अध्यापक बनाने में।
प्रश्न-बेहतर शिक्षा व्यवस्था के लिए कुछ जरूरी सुझाव क्या होने चाहिएं?
उत्तर-इन्हें भी इस प्रकार बिन्दुवपार समझा जा सकता है-
1. बच्चों को हुनरमंद बनाने के लिए छठवीं कक्षा से ही उन्हें रोजगारपरक शिक्षा भी दी जाये।
2. ऐसी शिक्षा व्यवस्था की जाये जिससे बच्चों का मानसिक, शारीरिक व बौद्धिक विकास हो।
3. ऐसी शिक्षा दी जाये जिससे बच्चे समाज व देश की मुख्यधारा से जुड़ सकें।
4. शिक्षा के मूल आयाम जैसे साहित्य, कला, क्रीड़ा, संस्कृति, इतिहास, अनुसंधान आदि पर विशेष ध्यान दिया जाये। इनकी उचित शिक्षा उचित समय पर उचित बच्चों को विशेष रूप से दी जानी चाहिये। उनपर सरकार एवं समाज को पैसा खर्च करना चाहिये। उनसे अर्थार्जन की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिये।
5. शिक्षा ऐसी हो, जिसमें संप्रेषणीयता का अभाव कतई न हो। इसके लिए गहन अध्ययन जरूरी है। इसके लिये नई पद्धतियों का गठन किया जाना चाहिये।
6. शिक्षा व्यवस्था ऐसी हो, जो बच्चों को सिर्फ मल्टीनेशनल कंपनी का नौकर नहीं बल्कि आत्मविश्वासी, उद्यमशील एवं स्वावलम्बी बनाये।
और अंत में गुरु के श्रीचरणों में प्रणाम करते हुए कहना चाहूँगा कि एक सुप्तावस्था व्यक्ति दूसरे को क्या जगायेगा-जगाने के लिए स्वयं पहले जागना पड़ेगा।
नहीं है अब समय कोई गहन निद्रा में सोने का
समय है एक होने का न मतभेदों में खोने का
समुन्नत एक हो भारत यही उद्देश्य है अपना
स्वयं अब जागकर हमको जगाना देश है अपना।
जय हिन्द, जय भारत, जय गुरुदेव!
-समाप्त-

प्रस्तुति-डॉ. चेतन आनंद

News Reporter

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