लेख-
डॉ. अशोक कुमार गदिया
हमारे देश की शासन व्यवस्था प्रजातांत्रिक है। इस व्यवस्था में संविधान सर्वोपरि है। संविधान के दायरे में रहते हुए जनप्रतिनिधि जनता द्वारा चुनकर आते हैं और जनता की सेवा करने के लिये प्रतिबद्ध होते हैं। जनप्रतिनिधि, कार्य पालिका एवं जनता संविधान के दायरे में रहते हुए कानून व्यवस्था के अनुसार कार्य कर रहे हैं या नहीं इसकी निगरानी के लिये हमने न्याय व्यवस्था बनाई। इसी के आधार पर हमारे शासन-प्रशासन का ताना-बाना बुना गया है, जो विश्व की सभी शासन व्यवस्थाओं में सर्वश्रेष्ठ और सबसे कम बुराइयां वाली शासन व्यवस्था मानी जाती है। इसे प्रजातांत्रिक व्यवस्था कहा गया है, जिसमें जनता अपने मताधिकार का उपयोग करते हुए अपने द्वारा, अपने लिये जनप्रतिनिधि का चुनाव 5 वर्ष के लिये करती है। इस चुनावी प्रक्रिया में जो प्रत्याशी अधिकतम मत (वोट) हासिल करता है वह अपने क्षेत्र का जनप्रतिनिधि कहलाता है और अपने क्षेत्र के लोगों की आशा, आकांक्षा के अनुकूल लोकसभा या विधानसभा या नगर पालिका या ग्राम पंचायत या स्थानीय निकाय में अपनी बात रखता है तथा अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है।
अब सवाल यह उठता है कि क्या हमारे जनप्रतिनिधि अपने क्षेत्र जिससे वह चुनकर आये हैं, उसका वास्तव में प्रतिनिधित्व करते हैं? सबसे पहला सवाल तो यही उठता है कि क्या वह वास्तव में उस क्षेत्र के जनप्रतिनिधि हैं? उसको उस क्षेत्र की जनता का विश्वास प्राप्त है? बारीकी से देखा जाए तो अधिकांश जनप्रतिनिधि अपने क्षेत्र के प्रतिनिधित्व करने के योग्य ही नहीं हैं। क्योंकि उनको वहाँ की जनता का विश्वास ही प्राप्त नहीं है। उदाहरण के लिये किसी क्षेत्र में यदि 50 प्रतिशत मतदान हुआ तो यह तो तय हो गया कि 50 प्रतिशत जनता ने तो मतदान में हिस्सा ही नहीं लिया। इसका मतलब 50 प्रतिशत जनता ने यह माना कि जो व्यक्ति चुनाव लड़ रहे हैं, वे हमारे प्रतिनिधि बनने लायक नहीं हैं या उनका इस प्रजातांत्रिक व्यवस्था एवं शासन प्रणाली में विश्वास ही खत्म हो गया है। इसलिये वह मतदान जैसे महत्वपूर्ण कार्य के प्रति पूर्णतया उदासीन हैं।
15वीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव में 58.73 प्रतिशत मतदाताओं ने वोट दिया था। उसमें से भी सत्तारूढ़ कांग्रेस को 37.22 फीसदी वोट ही मिले थे, जो कुल मतदाताओं का तीस प्रतिशत भी नहीं था। उससे पहले के लोकसभा चुनाव में कुल मतदान 57.65 फीसदी था और उसमें से सत्ताधारी कांग्रेस को 35 फीसदी वोट ही मिले थे। 1984 के लोकसभा चुनाव में 63.56 प्रतिशत मतदान हुआ था, जो अब तक का सर्वाधिक है। वह चुनाव इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुआ था। उसके बाद 1989 में 61.95 प्रतिशत वोटिंग हुई थी, जब सत्ता में भ्रष्टाचार को लेकर विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मुहिम छेड़ रखी थी। इससे पहले 1977 में भी आपातकाल के विरोध में 60 फीसदी से अधिक लोगों ने वोट डाले थे। साफ है कि जनता कई बार अपने मताधिकार के इस्तेमाल के प्रति सक्रिय हो जाती है। पर मूल सवाल यह है कि इतने सारे लोग वोट क्यों नहीं डालते? राजधानी दिल्ली का दक्षिणी इलाका सर्वाधिक पढ़ा-लिखा, संपन्न और जागरूक है, जहां पिछले तीन लोकसभा चुनावों के दौरान 35 से 40 फीसदी मतदान हुआ। इस दौरान देश के पहले पूर्ण साक्षर जिले एर्नाकुलम में मतदान का प्रतिशत लगभग 46 था। पढ़े-लिखे लोगों में वोट डालने के प्रति लापरवाही का मूल कारण राजनीतिक पार्टियों का रवैया ही है, जो चुनाव को सत्ता में आने का अवसर ही ज्यादा मानती हैं। ऐसे में अनेक मतदाता वोट देने नहीं जाते।
कम मतदान के कारण-
1-मतदाताओं की बढ़ती संख्या के अनुरूप मतदाता केंद्रों की संख्या नहीं बढ़ी है। मतदाता सूची में नाम जुड़वाना जटिल है और उससे भी कठिन है मतदाता पहचान पत्र पाना।
2-उसके बाद मतदान से पहले अपने नाम की पर्ची जुटाओ, फिर उसे मतदान केंद्र में बैठे एक कर्मचारी को देकर एक कागज पर दस्तखत करो या अंगूठा लगाओ। फिर एक कर्मचारी आपकी उंगली पर स्याही लगाएगा। एक अफसर मशीन शुरू करेगा, फिर आप बटन दबाकर वोट डालेंगे। एक मतदाता को वोट देने में दो मिनट का समय लगे, तो एक घंटे में अधिकतम 30 मतदाता ही वोट दे पाते हैं।
3-इसके अलावा देश में 40 फीसदी से अधिक लोग रोज कमाकर खाने वाले हैं। यदि वे वोट डालने के लिए कतार में लगेंगे, तो उनकी दिहाड़ी मारी जाएगी।
4-एक कारण बड़ी संख्या में महिलाओं का घर से न निकलना भी है।
5-जेल में बंद विचाराधीन कैदियों, अस्पताल में भर्ती मरीजों व उनकी देखभाल में लगे लोगों, चुनाव व्यवस्था में लगे कर्मचारियों, सफर कर रहे लोगों, सुरक्षा कर्मियों व सीमा पर तैनात जवानों के लिए मतदान की माकूल व्यवस्था नहीं है।
6-डाक से मतदान की प्रक्रिया इतनी गूढ़ है कि कम लोग ही इसका लाभ उठा पाते हैं। कुछ वर्ष पहले चुनाव आयोग ने प्रतिपत्र मतदान का प्रस्ताव रखा था, जिसके तहत मतदाता अपने किसी प्रतिनिधि को वोटिंग के लिए अधिकृत कर सकता है। पर यह अभी तक सुझाव ही है।अब आते हैं बचे 50 प्रतिशत लोगों पर, जिन्होंने मतदान किया-
माना यदि तीन प्रत्याशी हैं तो इनमें एक को मिले 30 प्रतिशत वोट, दूसरे को मिले 33 प्रतिशत वोट और तीसरे को मिले 37 प्रतिशत वोट तो 37 प्रतिशत वोट वाला जीता हुआ प्रत्याशी माना जाएगा। अब यदि हिसाब लगाया जाए तो उसे अपने क्षेत्र के कुल मतदाता का साढ़े 16 प्रतिशत वोट मिला और वह इस क्षेत्र का जनप्रतिनिधि बन गया। यह कितना हास्यास्पद लगता है, क्योंकि जिस क्षेत्र की 83.5 जनता ने उसको किसी योग्य नहीं माना वह 5 वर्ष के लिये उनका जनप्रतिनिधि बन गया और ऐसे तमाम लोग गिरोह बनाकर प्रशासन के सर्वोच्च पद पर आसीन हो गये। हमारी प्रजातांत्रिक व्यवस्था की यही विडम्बना है कि लगभग 20 से 25 प्रतिशत जनमत प्राप्त करने वाले राज करते हैं जबकि 75 प्रतिशत जनमत ने उनको अयोग्य समझा या नकार दिया।
सुझाव
निश्चित रूप से हमारी मतदान व्यवस्था को दुरस्त करना चाहिये कोई भी जनप्रतिनिधि अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व तभी कर सके जब उसे उस क्षेत्र के कुल मतों का कम से कम 60 प्रतिशत मत हासिल हा।े इस लक्ष्य को हासिल करने के लिये यदि मतदान अनिवार्य भी करना पड़े तो किया जाना चाहिए। मतदाता घर बैठे भी इंटरनेट के जरिये भी वोट दे सकता है। उसे भी करवाना चाहिए। यदि कोई बिना किसी विशेष कारण के मतदान न करे उसे कुछ मूलभूत सुविधाओं से वंचित किया जाना चाहिये। ऐसा करने पर ही हम सही मायने में विश्व की सर्वश्रेष्ठ जिम्मेदार एवं जवाबदेही प्रशासन व्यवस्था दे पायेंगे। इस सम्बन्ध में केन्द्र में बैठी सरकार एवं चुनाव आयोग को अविलम्ब कदम उठाने चाहिए।
जय हिन्द!