कश्मीर कैसे बना आतंकियों की पनाहगाह
-लेखक डॉ. अशोक कुमार गदिया ने दी जानकारी
गाजियाबाद। वसुंधरा स्थित मेवाड़ ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस और प्रभाष परम्परा न्यास की ओर से आयोजित वर्चुअल मासिक विचार संगोष्ठी में इंस्टीट्यूशंस के चेयरमैन डॉ. अशोक कुमार गदिया ने कश्मीर के लगभग 1500 वर्षों के इतिहास की जानकारी श्रोताओं को दी। उन्होंने बताया कि हिन्दू संस्कृति और संत परम्परा की पोषक कश्मीर की धरती धीरे-धीरे कैसे षड्यंत्रों का शिकार हुई और आतंकियों की पनाहगाह बनी। डॉ. गदिया अपनी ही लिखित पुस्तक ‘मेरे अनुभव और इतिहास के झरोखे से कश्मीर’ के बारे में विचार व्यक्त कर रहे थे।
उनके अनुसार इस इतिहास पर निगाह डालें तो यह समझ में आता है कि कश्मीर एक अति सुन्दर, रमणीय एवं शान्त भूमि थी। यहाँ प्रकृति ने अनुपम कृपा बरसाकर इसे मनमोहक क्षेत्र बनाया है। अतः शुरूआती दौर में तो यह ऋषि-मुनियों की साधना स्थली रहा। बड़े-बड़े ऋषि मुनियों ने यहाँ के शान्त वातावरण में तप एवं तपस्या की। यहां पर राजा भी साहित्य, कला, अध्यात्म, भाषा विज्ञान, वास्तुकला आदि के शौकीन रहे। अपने राज्य में उन्होंने अनेक विद्वानों को शरण एवं प्रोत्साहन दिया। इसके फलस्वरूप यहाँ पर साहित्य, काव्य, कला, संस्कृति का उत्कृष्ट विकास हुआ। कई ग्रन्थ एवं काव्य लिखे गये। कई शोध हुए यहाँ पर। हिन्दू एवं बौद्ध दर्शन का विकास हुआ। कई मन्दिर एवं मठों का निर्माण हुआ। इस भूमि पर हिन्दु दर्शन एवं बौद्ध दर्शन दोनों फल-फूल रहे थे। थोड़ा-बहुत टकराव राजा के स्वभाव की वजह से था। पर जनता में दोनों दर्शनों के प्रति समान आदर भाव था। उन्होंने बताया कि धीरे-धीरे राज दरबार में कमजोर एवं अयोग्य राजा आने लगे। उससे भ्रष्टाचार, व्याभिचार एवं अत्याचार पहले राज दरबार में फिर आम जनता में व्याप्त होने लगा। उससे अव्यवस्था का निर्माण हुआ। लोगों में डर एवं असुरक्षा का भाव बढ़ने लगा। उससे व्याप्त हुआ। अंधविश्वास, झूठ, फरेब एवं कुरीतियाँ, पक्षपात उसमें से निकले ऊंच-नीच एवं शोषण के नये-नये तरीके। स्त्रियों की दुर्दशा हुई। सती प्रथा, नर एवं पशु बलि की शुरूआत हुई। छुआछूत की शुरूआत हुई। वेश्यावृत्ति बढ़ी एवं राज दरबार तक पहुँची। राजकीय कार्यों में कुटिल एवं व्याभिचारी महिलाओं का हस्तक्षेप बढ़ा। नये-नये कर लगने लगे, राजा जनता के रक्षक के बजाय भक्षक बनने लगे। कई बार पूरे क्षेत्र को बाढ़ एवं अकाल ने घेर लिया। राजा उनमें कुछ विशेष नहीं कर सके। बड़े प्रभावशाली धर्माचार्यों की कमी हो गयी, जो समाज को दिशा दे सकें एवं राजा का मार्गदर्शन कर सकें। समाज दिशाहीन एवं दयनीय अवस्था में आ गया था। उसे न तो कोई मार्गदर्शन था और न ही कोई संरक्षण। अतः इस हालात में हिन्दू एवं बौद्ध दर्शन के आदर्श दम तोड़ने लगे और इस्लाम अपनी जगह बनाता चला गया।
संगोष्ठी की अध्यक्ष मेवाड़ ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस की निदेशिका डॉ. अलका अग्रवाल ने अपने सम्बोधन में कहा कि डॉ. गदिया की कश्मीर पर लिखी पुस्तक अद्भुत है। जानकारियों से भरपूर है। डॉ. गदिया ने स्वयं कश्मीर जा-जाकर अपने अनुभवों के आधार पर इसे लिखा है। यह पुस्तक वास्तव में आज के कश्मीर का हाल बयां करती है। साथ ही कश्मीर में शांति बहाली कैसें हो, इसके सुझाव भी देती है। संगोष्ठी का संचालन वरिष्ठ पत्रकार मनोज मिश्र ने किया। उन्होंने बताया कि इस पुस्तक के बारे में क्रमवार विचार संगाष्ठियां होंगी। संगोष्ठी में मेवाड़ विश्वविद्यालय, मेवाड़ ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस के टीचर्स के अलावा प्रभाष परम्परा न्यास के तमाम सदस्य उपस्थित रहे।
-लेखक डॉ. अशोक कुमार गदिया ने दी जानकारी
गाजियाबाद। वसुंधरा स्थित मेवाड़ ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस और प्रभाष परम्परा न्यास की ओर से आयोजित वर्चुअल मासिक विचार संगोष्ठी में इंस्टीट्यूशंस के चेयरमैन डॉ. अशोक कुमार गदिया ने कश्मीर के लगभग 1500 वर्षों के इतिहास की जानकारी श्रोताओं को दी। उन्होंने बताया कि हिन्दू संस्कृति और संत परम्परा की पोषक कश्मीर की धरती धीरे-धीरे कैसे षड्यंत्रों का शिकार हुई और आतंकियों की पनाहगाह बनी। डॉ. गदिया अपनी ही लिखित पुस्तक ‘मेरे अनुभव और इतिहास के झरोखे से कश्मीर’ के बारे में विचार व्यक्त कर रहे थे।
उनके अनुसार इस इतिहास पर निगाह डालें तो यह समझ में आता है कि कश्मीर एक अति सुन्दर, रमणीय एवं शान्त भूमि थी। यहाँ प्रकृति ने अनुपम कृपा बरसाकर इसे मनमोहक क्षेत्र बनाया है। अतः शुरूआती दौर में तो यह ऋषि-मुनियों की साधना स्थली रहा। बड़े-बड़े ऋषि मुनियों ने यहाँ के शान्त वातावरण में तप एवं तपस्या की। यहां पर राजा भी साहित्य, कला, अध्यात्म, भाषा विज्ञान, वास्तुकला आदि के शौकीन रहे। अपने राज्य में उन्होंने अनेक विद्वानों को शरण एवं प्रोत्साहन दिया। इसके फलस्वरूप यहाँ पर साहित्य, काव्य, कला, संस्कृति का उत्कृष्ट विकास हुआ। कई ग्रन्थ एवं काव्य लिखे गये। कई शोध हुए यहाँ पर। हिन्दू एवं बौद्ध दर्शन का विकास हुआ। कई मन्दिर एवं मठों का निर्माण हुआ। इस भूमि पर हिन्दु दर्शन एवं बौद्ध दर्शन दोनों फल-फूल रहे थे। थोड़ा-बहुत टकराव राजा के स्वभाव की वजह से था। पर जनता में दोनों दर्शनों के प्रति समान आदर भाव था। उन्होंने बताया कि धीरे-धीरे राज दरबार में कमजोर एवं अयोग्य राजा आने लगे। उससे भ्रष्टाचार, व्याभिचार एवं अत्याचार पहले राज दरबार में फिर आम जनता में व्याप्त होने लगा। उससे अव्यवस्था का निर्माण हुआ। लोगों में डर एवं असुरक्षा का भाव बढ़ने लगा। उससे व्याप्त हुआ। अंधविश्वास, झूठ, फरेब एवं कुरीतियाँ, पक्षपात उसमें से निकले ऊंच-नीच एवं शोषण के नये-नये तरीके। स्त्रियों की दुर्दशा हुई। सती प्रथा, नर एवं पशु बलि की शुरूआत हुई। छुआछूत की शुरूआत हुई। वेश्यावृत्ति बढ़ी एवं राज दरबार तक पहुँची। राजकीय कार्यों में कुटिल एवं व्याभिचारी महिलाओं का हस्तक्षेप बढ़ा। नये-नये कर लगने लगे, राजा जनता के रक्षक के बजाय भक्षक बनने लगे। कई बार पूरे क्षेत्र को बाढ़ एवं अकाल ने घेर लिया। राजा उनमें कुछ विशेष नहीं कर सके। बड़े प्रभावशाली धर्माचार्यों की कमी हो गयी, जो समाज को दिशा दे सकें एवं राजा का मार्गदर्शन कर सकें। समाज दिशाहीन एवं दयनीय अवस्था में आ गया था। उसे न तो कोई मार्गदर्शन था और न ही कोई संरक्षण। अतः इस हालात में हिन्दू एवं बौद्ध दर्शन के आदर्श दम तोड़ने लगे और इस्लाम अपनी जगह बनाता चला गया।
संगोष्ठी की अध्यक्ष मेवाड़ ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस की निदेशिका डॉ. अलका अग्रवाल ने अपने सम्बोधन में कहा कि डॉ. गदिया की कश्मीर पर लिखी पुस्तक अद्भुत है। जानकारियों से भरपूर है। डॉ. गदिया ने स्वयं कश्मीर जा-जाकर अपने अनुभवों के आधार पर इसे लिखा है। यह पुस्तक वास्तव में आज के कश्मीर का हाल बयां करती है। साथ ही कश्मीर में शांति बहाली कैसें हो, इसके सुझाव भी देती है। संगोष्ठी का संचालन वरिष्ठ पत्रकार मनोज मिश्र ने किया। उन्होंने बताया कि इस पुस्तक के बारे में क्रमवार विचार संगाष्ठियां होंगी। संगोष्ठी में मेवाड़ विश्वविद्यालय, मेवाड़ ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस के टीचर्स के अलावा प्रभाष परम्परा न्यास के तमाम सदस्य उपस्थित रहे।