5 सितम्बर शिक्षक दिवस पर विशेष-
गुरु और अध्यापक में फर्क यह है कि अध्यापक सिर्फ अध्ययन कराने से जुड़ा है, जबकि गुरु अध्ययन से आगे जाकर जिन्दगी की हकीकत से भी रू-ब-रू कराता है और उससे निपटने के गुर सिखाता है। अगर इतिहास के पन्नों पर नजर दौड़ायें तो हमें कई जगह पर अपने धार्मिक ग्रंथों और कहानियों में गुरु की भूमिका, उसकी महत्ता और उसके पूरे स्वरूप के दर्शन हो जाएंगे। महाभारत में श्रीकृष्ण अर्जुन के सामने युद्ध के मैदान में गुरु की भूमिका में थे। उन्होंने अर्जुन को न सिर्फ उपदेश दिया बल्कि हर उस वक्त में उन्हें थामा जब-जब अर्जुन लड़खड़ाते नजर आए। लेकिन आज का अध्यापक इससे अलग है। अध्यापक गुरु हो सकता है पर किसी गुरु को सिर्फ अध्यापक समझ लेना ग़लत है। ऐसा भी हो सकता है कि सभी अध्यापक गुरु कहलाने लायक न हों, हज़ारों में से मुट्ठीभर अध्यापक आपको गुरु मिलेंगे। हमारे आस-पास मौजूद तमाम लोग, प्रकृति में व्यवस्थित हर चीज़ छोटी या बड़ी, जिससे कुछ सीखने को मिले, उसे हमें गुरु समझना चाहिए और उससे एक शिष्य के नाते पेश आना चाहिए। यूं तो गुरु से ज्यादा महत्वपूर्ण शिष्य है। शिष्य से ही गुरु की महत्ता है। यदि कोई शिष्य उस गुरु से सीखने को तैयार नहीं है तो वह गुरु नहीं हो सकता। गुरुत्व शिष्यत्व पर निर्भर है। हम बात कर रहे हैं अध्यापक की। आज के समय में अध्यापन एक बिजनेस या एक प्रोफेशन भर रह गया है। पहले पैसा लेना और फिर पढ़ाना, प्रीपेड सर्विस हो गई है। जो लोग इस तरह से पढ़ा रहे हैं क्या उनके लिए अलग से एक दिन होना चाहिए? मेरे ख्याल से तो नहीं होना चाहिए। यदि है तो फिर हर प्रोफेशन के लिए एक दिन होना चाहिए। बहुधा दिखाई देता है कि अध्यापक पढ़ाते हैं, किताबों का रट्टा लगवाते हैं या फार्मूला समझाकर सवाल हल करना सिखाते हैं। यह तो पढ़ाना हुआ, गढ़ना न हुआ। गुरु पढ़ाता नहीं, गढ़ता है। गढ़ने का मतलब है उसे एक आकार देना। और गुरु का काम यही है, तपाकर उसे एक आकार देकर भविष्य के लिए तैयार करना, ताकि शिष्य कहीं मात न खाए और जीवन में हमेशा चमकता रहे। गुरु का काम बहुत बड़ा है। माता, पिता, भाई, बहन, तमाम रिश्तेदार, तमाम जानकार, जिनसे हमें दिन में कई बार संपर्क करना पड़ता है, सब गुरु हैं। सबके पास ज़िन्दगी के अनुभव हैं। हम उनके दैनिक क्रियाकलापों को देखकर ही बहुत कुछ सीखते हैं। गुरु के लिए तो हृदय में हमेशा सम्मान रखना जरूरी है। गुरु के बिना गति नहीं होती, मतलब गुरु के बिना जीवन की प्रगति अवरुद्ध हो जाती है। गति गुरु से ही है। और हमारे चारों तरफ मौजूद चीजें जो हमें कुछ भी सीख देती हैं, वह हमारी गुरु हैं। इसलिए जरूरी है कि टीचर्स डे को अध्यापक दिवस ही समझा जाना चाहिए, गुरु दिवस नहीं। गुरु का ओहदा अध्यापक से बहुत ही ऊंचा है।
गुरु का स्थान समाज एवं राष्ट्र जीवन में हमेशा सर्वोच्च रहा है और भविष्य में भी रहेगा। बचपन में माता-पिता, बड़े भाई-बहन, चाचा-चाची, दादा-दादी, नाना-नानी, ताऊ-ताईजी, बुआ, मौसी, मामा-मामी इत्यादि भी किसी न किसी स्तर पर हर व्यक्ति के जीवन में गुरु का ही काम करते हैं। तरुणाई में मित्र, साथी एवं व्यस्क होने पर जीवनसाथी एवं कार्यस्थल के साथी भी कभी-कभी गुरु का कार्य करते हैं। अध्ययन के दौरान हमको पढ़ाने वाले, सिखाने वाले समय-समय पर हमारा मार्गदर्शन कर हमें प्रोत्साहित कर आगे का मार्ग दिखाने वाले अध्यापक हमारे जीवन में गुरु का स्थान लेते हैं। इसके अतिरिक्त अपने जीवन में आध्यात्मिक गुरु का भी अपना स्थान होता है। जीवन की जटिलताओं को दूर करते हुए सर्वकल्याण के सुगम मार्ग पर चलने की राह दिखाने वाले आध्यात्मिक गुरु को हम गुरु पूर्णिमा के दिन याद करते हैं, उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हैं।
वे गुण जो अध्यापक को गुरु बनने की ओर अग्रसर करेंगे-
1 अध्यापक अपनी विषय-वस्तु में पारंगत हो। जो उसे पढ़ाना है उसके बारे में उसे कोई संशय न हो और वह उसे पूर्ण आत्मविश्वास से पढ़ा सके।
2 अध्यापक का अध्यापन एवं भाषा साफ, सरल, रोचक एवं आकर्षक हो।
3 अध्यापक न सिर्फ पढ़ाये बल्कि इस बात की भी चिंता करे कि जो वह पढ़ा रहा है वह कमज़ोर से कमज़ोर और होशियार से होशियार बच्चे को समझ आ रहा हो।
4 अध्ययन एवं अध्यापन रुचिपूर्ण हो, उबाऊ बिल्कुल न हो।
5 अध्ययन एवं अध्यापन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हो। रोज़मर्रा की घटनाओं एवं परिस्थितियों को मद्देनजर रखते हुए उनके उदाहरण देते हुए हो।
6 अध्ययन एवं अध्यापन द्विपक्षीय प्रक्रिया है, इस बात का पूरा ध्यान रखें।
7 अध्यापन का माध्यम आधुनिक हो तथा हमेशा अपने विद्यार्थियों के स्तर को ध्यान में रखकर हो।
8 अध्यापक में अच्छी श्रवणशक्ति हो। वह अपने बच्चों की बात को ध्यान से सुन सके।
9 अध्यापक अच्छा परामर्शदाता हो।
10 अध्यापक अपने नियमों के प्रति सुदृढ़ हो और पक्षपाती न हो।
11 अध्यापक अपनी विषय वस्तु को क्रमवार रुप में प्रस्तुत करने में सक्षम हो।
12 अध्यापक समर्पण भाव से पढ़ाये एवं दिल से पढ़ाये, दिमाग से कतई न पढ़ाये। (अध्यापन करते समय शिक्षक अपने मस्तिष्क में वेतन सम्बंधी विचार न रखे)
13 अध्यापक अपने बच्चों के प्रति स्वाभिमानी हो।
14 अध्यापक एक आदर्श व्यक्तित्व हो।
15 उसका अपनी कक्षा पर पूर्ण नियंत्रण हो एवं वह सबसे अपना सम्पर्क आसानी से बनाने सक्षम हो।
16 अध्यापक ऊपर से सख्त एवं अन्दर से नर्म हो। उसका उद्देश्य हो केवल एक अच्छा व्यक्तित्व तैयार करना हो।
17 अध्यापक हमेशा सकारात्मक विचारधारा का हो।
18 अध्यापक के सदैव जिज्ञासु एवं कुछ नया सीखने को तत्पर हो।
उपरोक्त विवेेचन से यह स्पष्ट होता है कि हमें मार्गदर्शन करने वाले ठीक से तैयार करने होंगे, वह कैसे होंगे? इसके लिये करने होंगे अच्छे अध्यापक तैयार। वे होंगे अध्यापकों की अच्छी पढ़ाई, प्रशिक्षण एवं प्रोत्साहन जैसे तकनीकी व व्यवहारिक कार्य लगातार करने से। वह भी एक बार करने से नहीं, बल्कि निरन्तर प्रयास करने होंगे। अध्यापक को रोज़ नया ज्ञान, तकनीक, प्रशिक्षण एवं प्रोत्साहन, पुरस्कार, उचित एवं पर्याप्त वेतन दिया जाना चाहिये। अध्ययन एवं अध्यापन को समाज में सर्वाधिक प्रतिष्ठित व्यवसाय माना जाना चाहिये। यदि हम यह सब करने में सफल होते हैं तो हम एक सभ्य समाज एवं सुदृढ़ राष्ट्र के निर्माण की ओर अग्रसर होंगे।
-समाप्त-
लेखक-
डॉ. अशोक कुमार गदिया
अध्यक्ष, मेवाड़ ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस
गाजियाबाद