दोस्तो, हमने फूल,पतझड़,बारिश,बादल,कॉफी, चाय,मौसम से बहुत इश्क़ कर लिया। चलिए अब करते हैं जरा सा इश्क़,अपना अपना इश्क़, सबका इश्क़। जरा सा इश्क़ करते हैं चमकी बुखार और ऐसे ही नामालूम कितनी रहस्मयी बीमारियों से मर चुके बच्चों के उन माता-पिता से जिनका हाल पता पूछने अब कोई नही जाता। जरा सा इश्क़ करते हैं उन वीर सैनिकों की विधवाओं और बच्चों से जिनके पिता सीमा पर शहीद हो जाते हैं और वो राजदुलारियाँ रात के गहन अंधकार में अपने दुधमूहों को गोद मे ले सिसकती रहती हैं।
जरा सा इश्क़ करते हैं उन रूपजीवाओं से जिनकी जवानी हवस की तंग और अंधी गलियों का शिकार होकर छलनी जिस्म और आत्मा को लहूलुहान होते देखती रहती है और जवानी ढल जाने के बाद भीख मांगते हुए किसी सड़क के किनारे प्राण त्याग देती है। जरा सा इश्क़ उन बच्चों से करते हैं जिनके पिता नशे की गिरफ्त में आकर अपना प्राण त्याग देते हैं और उनकी संतानें सूनी आंखों से अपने भविष्य को चकनाचूर होते हुए देखती हैं। जरा सा इश्क़ उन बच्चों से करते हैं जो घर में,स्कूल में,होस्टल में तथा अनेकानेक ऐसी जगहों पर यौन हिंसा के शिकार होते हैं फिर उम्र भर इस त्रासदी से नही उबर पाते और एक स्थायी विकार उनके मनोमस्तिष्क पर पड़ जाता है। ऐसा ही जरा सा इश्क़,अपना-अपना इश्क़ और सबका इश्क़ उन तमाम त्रासदी के शिकार लोगों से कर लें जिसका कारक मानव जाति है। फिर मेरे दोस्तों जरा सा बचा हुआ इश्क़ हम सब अपने अपने सपनों की उस प्यारी-सी लड़की से कर लें जिसमे मानवता कूट कूट कर भरी हुई है। जिसे मजलूमों, सताये हुए लोगों और अनाथ बच्चों की चिंता है, जिसका मन कुंदन की तरह है। जिसे मानवता की फिक्र है। जो बादल, हवा, पानी, झील, चाँद, फूल, पौधों और हरियाली से इश्क़ करती है।
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ साहब की ग़ज़ल के चंद शेर –
अनगिनत सदियों के तारीक बहिमाना तालिस्म
रेशमों-अतलसो-कमखाब में बुनवाये हुए।
जा-ब-जा बिकते हुए कूचाए बाज़ार में जिस्म
खाक में लिथड़े हुए खून में नहलाये हुए।
लौट जाती है उधर को भी नजर क्या कीजे ?
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे ?
और भी दुख हैं जमाने मे मुहब्बत के सिवा,
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा।
मुझसे पहली से मुहब्बत मेरे महबूब ना मांग।
-उदय त्रिपाठी
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