आजादी के अमृत महोत्सव पर विशेष लेख-
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान फिरंगियों का यूनियन जैक झंडा फाड़ने और सरकारी थाना फूंकने की सज़ा भोगनी पड़ी थी धौलाना कस्बे के क्रांतिकारियों को। गुस्साये फिरंगियों ने 14 क्रांतिकारियों को सरेआम पीपल के पेड़ पर लटकाकर फांसी दे दी थी और पूरा कस्बा ज़ब्त कर उसे आर्थिक संकट की भट्टी में झोंक दिया था। आज भी धौलाना कस्बे में क्षतिग्रस्त हालात में मौजूद सरकारी थाना और शहीद स्मारक क्रांतिकारियों के हौसलों की याद ताज़ा किए हुए हैं। चित्तौड़ में बप्पा रावल का राज्य स्थिर व विस्तृत हो चला था तो अजमेर में चौहान व दिल्ली में तोमर राजपूतों ने पैर पसार लिए थे। ऐसे में चित्तौड़ के रावल खुम्मान तृतीय के दो छोटे पौत्र हस्तराज सिंह और बच्छराज सिंह अपनी सेना समेत सन् 903 ई. में चित्तौड़ छोड़कर दिल्ली आए और फिर ग़ाज़ियाबाद के देहरा गांव के निकट अपना डेरा जमा लिया। बच्छराज सिंह की सातवीं पीढ़ी में तीन भाई हुए राणा सहजपाल सिंह, राणा जसपाल सिंह व राणा भंवरपाल सिंह। राणा जसपाल सिंह के चार पुत्र हुए मदनपाल सिंह, राणा चांद, राणा गंधर्वसेन व राणा सीध सिंह। मदनपाल सिंह ने देहरा गांव से चलकर धौलाना कस्बा आबाद किया, जिसमें 11 गांव ठाकुरों के निकाले गए। बताते हैं कि मेवाड़ से राजपूत यहां इसलिए आकर रहे कि यहां पशुओं के लिए पर्याप्त चारा-पानी था। यहां ‘रेत’ का जंगल भी बताया जाता है। यहां अक्सर धूल भरी आंधियां चला करती थीं। संभव है कि धूल भरी आंधियां चलने से ही इसका नाम धौलाना पड़ा है। एक ज़माने में धौलाना मुगलों की तहसील भी रहा है।
डिस्ट्रिक्ट गजेटियर में उल्लेख है कि बैरकपुर छावनी में अंग्रेजों की गोरी पलटन ने हिन्दुस्तानी पलटन (काली पलटन) को गाय की चर्बी लगे कारतूसों को दांतों से खींचने को मजबूर किया तो क्रांतिकारी मंगल पांडे के नेतृत्व में काली पलटन ने बगावत कर दी। गोरी पलटन ने काली पलटन के ‘हथियार छीनो और गिरफ्तार कर लो’ अभियान के तहत काली पलटन के हथियार छीन लिये और कुछेक को मार गिराया। बाकी क्रांतिकारी छिपते-छिपाते दिल्ली को कूच कर गए। पहले सड़कें या रेल मार्ग आदि सुविधाएँ नहीं हुआ करती थीं, इस कारण काली पलटन देर शाम तक देहरा, डासना, धौलाना व आस-पास के मेवाड़ राजपूतों के पास पहुंची। वहां देर रात तक विचार-विमर्श चलता रहा और निर्धारित योजना के तहत 11 मई 1857 को धौलाना कस्बे के हज़ारों नौजवानों ने धौलाना का सरकारी थाना फूंक डाला और हथियार आदि सामान लूट लिया। बाद में सभी नौजवान काली पलटन के साथ हाथों में शंख, घड़ियाल, घंटे आदि बजाते हुए हर-हर महादेव के नारों का उद्घोष करते गली-गली घूमे। इस दल का नेतृत्व धौलाना के क्रांतिकारी ठाकुर झनकू सिंह ने किया। इसके बाद काली पलटन झनकू सिंह के नेतृत्व में दिल्ली के लिए निकली और पूरे रास्ते रोटियां बांटती हुई गई। रोटियां भारतीयों के लिए फिरंगियों के विद्रोह का प्रतीक और क्रांति का निमंत्रण थीं। झनकू सिंह के साथ काली पलटन दिल्ली के लाल किले में आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह ज़फर के दरबार में पहुंची और उन्हें अपना नेता बनने को कहा। पहले तो वे इनकार करते रहे, लेकिन बाद में अपने ससुर नवाब मालागढ़ के कहने पर वे सहमत हो गए। सहमति मिलते ही ठाकुर झनकू सिंह ने लाल किले पर फिरंगियों के फहर रहे यूनियन जैक झंडे को उतारकर फाड़ा और अपनी केसरिया पगड़ी वहां लहरा दी। उस दिन की घटना की ख़बर अंग्रेजी हुकूमत को लगी। अपनी घोर बेइज्जती का बदला लेने के लिए उसने कर्नल हडसन को कार्रवाई करने के आदेश दिए। हडसन ने बहादुरशाह ज़फर के दो बड़े लड़कों के सिर काट डाले और बादशाह ज़फर को क़ैद कर रंगून की जेल में डाल दिया।
ब्रिटिश हुकूमत को पता चला कि ठाकुर झनकू सिंह बुलंदशहर में कमोना के बागी नवाब दूंदे खां के पास है। सूचना पर अंग्रेजी फौज ने वहां छापा मारा, मगर वे नहीं मिले। इस पर अंग्रेजों ने दूंदे खां की ज़मीदारी छीन ली। झनकू सिंह के बारे में पता चला कि वह कानपुर के पेशवा नाना साहब के साथ नेपाल कूच कर गया है, उसके बाद उसका कहीं सुराग नहीं लगा। ब्रिटिशों ने विरोध में नवाब मालागढ़ की भी ज़मींदारी छीनी। अवध के आखिरी नवाब वाजिद अली शाह का राज छीनकर उसे कलकत्ता में क़ैद कर लिया। बांदा के नवाब को काले पानी की सज़ा दे दी। धौलाना को लगान न देने पर ज़ब्त कर लिया गया। धौलाना में अंग्रेजी शासकों ने सरकारी थाना जला देने के आरोप में 13 ठाकुरों वजीर सिंह चौहान, साहब सिंह गहलौत, सुमेर सिंह, किड्ढा सिंह, चंदन सिंह, मक्खन सिंह, जिया सिंह, दौलत सिंह, जीराज सिंह, दुर्गा सिंह, मसाहब सिंह, दल्ले सिंह, महाराज सिंह और ठाकुर झनकू सिंह के भ्रम में लाला झनकू मल को कस्बे में पीपल के दो पेड़ों पर सरेआम फांसी पर लटकाकर मौत के घाट उतार दिया। यही नहीं शहीदों को अपमानित करने के लिए 14 क्रांतिकारियों के शवों के साथ 14 कुत्ते भी मारकर उन्हें एक विशाल गड्ढे में दबा दिया। यह घटना 26 नवम्बर 1857 को हुई। अंग्रेजों ने इस क़दर जुल्म ढाये कि इस दौरान धौलाना कस्बे के तमाम लोग व बलिदान हुए क्रांतिकारियों की पत्नियों को रोने और चूड़ियां तोड़ने की इजाज़त नहीं थी, बल्कि उन्हें क्रांतिकारियों की लाशों पर थूकने के आदेश दिये गये।
धौलाना कस्बे को बाद में लगान चुकाकर मेरठ के नवाब मिर्ज़ा स्कीनर ने खरीद लिया और राजपूतों को पंचायत सभा की ज़मीन पर अपनी रिहायश कर ली। यह जगह ‘नवाबों का टप्पा’ नाम से प्रसिद्ध रही। वर्ष 1943 में पूर्व विधायक मेघनाथ सिंह सिसौदिया ने मिर्ज़ा स्कीनर के वंशज जमशेद मिर्ज़ा से नवाबांे का टप्पा खरीद लिया और अंग्रेजों द्वारा बंद कराये सभी कार्यों को नये सिरे से कराया। अंग्रेजों ने धौलाना से मुरादाबाद तक एक रेलवे लाइन व चौड़ी सड़क निकालनी थी, मगर क्रांतिकारियों के विरोध के कारण यह योजना खत्म कर दी गई थी। श्री सिसौदिया ने अपने कार्यकाल में राजपूतों के गांवों में स्कूल खुलवाए, सड़कें बनर्वाइं, पानी के स्रोत मुहैया कराए। गड्ढा खुदवाकर क्रांतिकारियों की अस्थियां निकलवाकर उन्हें गंगा में प्रवाहित कराया और 11 मई 1957 को यहां एक शहीद स्मारक स्थापित किया, जो आज भी मौजूद है। ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण कस्बा धौलाना हर वर्ष 26 नवम्बर को शहीद दिवस मनाता आया है। हालांकि अपने कार्यकाल में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी यहां तक तो न पहुंच पाए, मगर उन्होंने अपनी श्रद्धांजलि जरूर भरी सभा में शहीदों को दी। धौलाना कस्बा कुल चार किलोमीटर क्षेत्रफल में बसा है, जिसकी वर्तमान में 15 हज़ार से अधिक आबादी है। यहां लगभग 9 हज़ार मतदाता हैं। आर्थिक दृष्टि से भी धौलाना कस्बा आज फिर से अपनी पहचान बनाने में कामयाब हुआ है। अंग्रेजों से लोहा लेने वाले जांबाज़ क्रांतिकारियों के नाम भी गुमनामी की भेंट चढ़ गये। आज तक उन्हें भारतीय इतिहास में स्थान नहीं मिला लेकिन उनका स्वतंत्रता आंदोलन के लिए दिया गया बलिदान सदियों तक भुलाया नहीं जा सकता।
लेखक
चेतन आनंद
(वरिष्ठ कवि एवं पत्रकार)
गोविन्दपुरम, ग़ाज़ियाबाद