बदलाव का दौर है. हर तरफ बदलाव की बयार है. कुछ बदलाव मंशा से किए जाते हैं तो कुछ अनायास ही हो जाते हैं. अब साहित्य को ही लें, नित नए प्रयोग हो रहे हैं. अलग-अलग विधाओं का दौर है. गद्यगीत, नवगीत, हाइकू आप कुछ भी उठा लें सब उपलब्ध हैं. खैर साहित्य अपने तरीके से इन सब बदलावों को आत्मसात तो कर ही रहा था पर इसमें क्रांतिकारी बदलाव का दौर फेसबुक के आविर्भाव से हुआ. सच मानिए इस फेसबुक से साहित्य की नई ज़मात को जन्म दिया है. सबसे खास बात जो है इस ज़मात में वह यह की आपको इसमें शामिल होने के लिए किसी संस्था या व्यक्ति का कोई सर्टिफिकेट नहीं चाहिए. और इससे भी बड़ी बात की आप किसी विधा विशेष से जुड़े हों अथवा साहित्य के किसी भी क्षेत्रमें विशेष हों ऐसा कोई बंधन नहीं.हाँ इन सब से अलग इस ज़मात में शामिल होने के लिए जो आधारभूत पूर्वशर्तें हैं उनका बहुत विशेष महत्व है. इतना की बिना उन सबके इस बदलाव के बयार की कल्पना भी आपके लिए दुष्कर है. तो हाँ बात हो रही थी आधारभूत पूर्वशर्तों की. इसके लिए सर्वप्रथम आपको इंटरनेट की जानकारी होनी चाहिए. आपके पास कम से कम एक स्मार्ट फ़ोन तो होना ही चाहिए और इन सब से इतर आपको फेसबुक की शुरूआती जानकारी तो होनी ही चाहिए. हाँ यह कहने की आवश्यकता नहीं की लिखना भी आना चाहिए. पर नहीं भी आता है तो उसका भी उपाय ‘कॉपी-पेस्ट’ है न. लोजी आप हो गए तैयार. अब जो लिखना है, जैसा लिखना है, जिस विधा में लिखना है आप स्वतंत्र है. आपको करना क्या है की अपने लिखे को बस ‘चेंपते’ जाना है और दूसरों के लिखे (बिना पढ़े भी) को लाइक करना है और जितना हो सके प्रशंसात्मक टिप्पड़ी या ईमोजी या दोनों का समुचित उपयोग करते हुए किसी भी पोस्ट पर डालते जाना है. इसका फायदा यह होगा की अगर सामने वाले की हर बात को, लिखे को आप जैसा सुधी पाठक, लेखक इतना महत्व देगा तो वह भी झक मारकर आपके लिखे पर लाइक तो मार ही देगा. बस हो गया काम. फेसबुक साहित्य में पहला कदम बढ़ा दिया आपने. अब तो बस जितना हो सके आप ऑनलाइन रहें, कमेन्ट करें और हर व्यक्ति को, ग्रुप को जो भी दिखे फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजते रहें. फिर वह दिन दूर नहीं जब जब आपके वर्चुअल मित्रों, फालोवर्स की संख्या आकर्षक अंकों की सीमा तक पहुँच जाएगी (भले ही वास्तविक जीवन में आपके चार दोस्त भी न हों). तो यह थी फेसबुकिया साहित्य के क्षेत्र में पदार्पण की रूपरेखा. पर अब यहाँ झण्डे गाड़ना व्यक्ति की अपनी चपलता, समझदारी और जोड़-तोड़ के अपने स्वाभाविक गुणों पर निर्भर करता है. सिर्फ़ लिखना (चेंपना), किसी के लिखे पर टिप्पड़ी या लाइक करना ही पर्याप्त नहीं. अगर कुछ विशेष प्रतिक्रिया पानी है या लोगों के बीच एक प्रखर लेखक, आलोचक अथवा पाठक का आदर (अनादर) पाना है तो इसका एक ही ब्रम्हास्त्र है और वह है की या तो आप किसी के लिखे (बिना पढ़े भी) पर बिना जाने समझे, बिना किसी तर्क के कुछ भी अनर्गल टिप्पड़ी कर दें या आप किसी व्यक्ति, क्षेत्र को इंगित करते हुए कुछ लोगों के लिखे का सच बयाँ कर दें (या अपना स्वयं का अनर्गल सच भी लिखा जा सकता है). उसके बाद तो आपके लाइक ,कमेंट्स में अप्रत्याशित वृद्धि होना तय है.धीरे-धीरे आप फेसबुकिया साहित्य के कुछ उन लोगों में शुमार हो जाएँगे जिनका नाम ही काफी है (काम की तो ज़रुरत ही नहीं. वैसे भी आपके काम को फेसबुक पर देखते ही कितने लोग हैं). जितना यह सब ऊपर से शांत, स्पष्ट और सरल दीखता है उतना भी नहीं. साहित्य की इस आधुनिकतम शाखा का एक पहलू और भी है. ऐसा नहीं की यह मात्र नौसिखियों और टाइमपास साहित्यकारों का ही गढ़ है इसके इतर यह उन सधे-सधाए, प्रखर लोगों का भी प्लेटफ़ॉर्म है जो इसका उपयोग अपने प्रायोजित प्रचार-प्रसार के लिए करते हैं. यहाँ फालोवर्स बनाए जाते हैं, उनको भरमाया जाता है अपनी किसी विचारधारा को पल्लवित करने के लिए, अपने मानसिक संतोष के क्षुधापूर्ति के लिए. एक बात और रह गई की अपने लेखन (चेपन) के साथ-साथ आप अपनी उपलब्धियों, जो भी आपने अर्जित की हों, किसी भी प्रकार से, की अनवरत चर्चा नियमित रूप से फेसबुक पर करते रहें. मसलन की आपके गली मोहल्ले के किसी भी व्यक्ति ने आपका हाल-चाल पूछ लिया हो, या किसी के यहाँ आना-जाना हुआ हो तो उन सबको एक महत्वपूर्ण साहियिक चर्चा गोष्ठीबताकर उसका महिमामंडन करते हुए उसको भी फेसबुक पर डालते रहें. अगर इन सब के बीच एक कदम और आगे बढाते हुए अगर आपने अपनी खुद की कोई संस्था बना रखी हो या नहीं भी है तो कम से कम एक बैनर (यह अतिमहत्वपूर्ण है) तो बनवा कर रख ही लेना चाहिए जिसका समुचित उपयोग करते हुए किसी भी औपचारिक बैठक को स्वयंसिद्ध साहित्यिक गोष्ठियों में बदला जा सकता है. कम से कम इतना सब कर लेने के बाद आप इस साहित्य की नवधारा के संवाहक तो हो ही जायेंगे.इस क्रान्तिकारी बदलाव में रही सही कसर कोरोना ने पूरी कर दी है. लोगों के पास समय की अनचाही उपलब्धता ने उनमें साहित्यकार बनने की इच्छा को बलवती तो किया ही और साहित्य की इस फेसबुकिया ज़मात को नवागुन्तकों (हालाँकि वह स्वयं को नवागुंतक माने तब) के रूप में लाइक करने वालों के रूप में की भीड़ की सौगात तो दी ही है. तो यह रही फेसबुकिया साहित्य की दुनिया जहाँ सब सुलभ है बस दुर्लभ है तो असल साहित्य की कल्पना. पर इसका मतलब यह नहीं की यहाँ जो भी है सब निरर्थक है, अनर्गल है या फिर बेमतलब. ऐसा बिलकुल नहीं है. फेसबुक ने साहित्यिक विचारों, लेखों को विशाल जनमानस में संप्रेषित करने का कार्य तो किया ही है. आप अलग-अलग परिवेश विधा, क्षेत्र के व्यक्तियों से सूचनाओं, ज्ञान का आदान-प्रदानकर सकते हैं. अगर इस तरह से सोशल मीडिया का प्रयोग थोड़ा गंभीरता और सजग रूप से किया जाए तो निश्चित रूप से यह मील का पत्थर साबित हो सकता है. पर इसके लिए हमें स्वयं पर नियंत्रण रखना सीखना होगा, दिखावे की प्रकृति से ऊपर उठकर विषयों पर गंभीर चर्चा करना सीखना होगा, अनर्गल प्रलापों से मुँह मोड़करसार्थक चर्चा पर आना होगा, लाइक्स, अनलाइक्स को परे रख साहित्य के तत्वों के आधार पर विचारों का आदान-प्रदान करना होगा. प्रशंसात्मक प्रकृति से हटकर सही को सही और गलत को गलत कहने की प्रवृत्ति अपनानी होगी. पर इसका मतलब यह नहीं की इस चक्कर में किसी नए विवाद अथवा बहस की श्रृंखला शुरू कर दी जाए. इतनी स्वाभाविक समझ तो रखनी ही होगी. पर फेसबुक का जो प्रारूप है और जो अबतक की रूपरेखा रही है उस हिसाब से इसमें किसी सार्थक, बहुत अप्रत्याशित एवं पुख्ता बदलाव की आस बहुत कम है पर हाँ संभावनाएं तो हैं ही और जहाँ संभावनाएं है वहाँ ऐसे प्रयासों को अनदेखा नहीं किया जा सकता. भविष्य जो भी हो,उपयोगिता अधिक हो या न हो पर साहित्य की यह फेसबुकिया ज़मात अपने किसी न किसी रूप में समृद्ध तो होती ही रहेगी अब यह जनमानस के आत्मनियंत्रण पर निर्भर है की फेसबुकिया साहित्य का यह ऊँट भविष्य में किस करवट बैठेगा.
अरविन्द भट्ट
(9811523657)