ग़ज़ल
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हमारी ज़िंदगी में जो तुम्हें दिखते उजाले हैं,
ये हमने रात के आगोश से जगकर निकाले हैं।
अगर तुम ध्यान से देखो तो मंज़िल का पता हैं ये,
नहीं तो ये महज़ रिसते हुए पाँवों के छाले हैं।
तुम्हारे प्यार के फूलों को कोई ले गया लेकिन,
तुम्हारी नफ़रतों के तीर तो हमने सम्भाले हैं।
तुम्हें हम प्यार का संदेश देते भी तो क्या देते,
अरे तुमने ही खुद में नफ़रतों के बीज पाले हैं।
सुनो आँगन में कैसे प्रीति की उगती भला तुलसी,
कि जिस घर में घृणा के, द्वेष के भरपूर जाले हैं।
-चेतन आनंद
ग़ज़ल
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न सूरत से, न सीरत से, मुहब्बत से, न चाहत से,
सियासत में बड़ा क़द हो गया है उनका नफ़रत से।
ये तो नफ़रत की बस्ती है, यहाँ नफ़रत ही चलती है,
भला जी पाओगे तुम किस तरह बोलो मुहब्बत से।
न मिलना-बात करना और सेवा भी नहीं करना,
महामानव बने बैठे हैं वो केवल सियासत से।
बुज़ुर्गों की, न गुरुओं की, न पंचों की ज़रूरत है,
यहाँ होने लगे हैं फैसले अब तो अदालत से।
न हमदर्दी, न रिश्तों की कोई शर्मो हया बाक़ी,
यहाँ अपने भी मिलते हैं तो बस अपनी ज़रूरत से।
है दिल में कुछ, ज़ुबाँ पे कुछ, नज़र में कुछ, अदा में कुछ,
यहाँ पर प्यार कारोबार है, चलता है दौलत से।
मुहब्बत ने तो मुश्किल से फ़कत कुछ दिल ही बदले हैं,
ज़माने में बड़े बदलाव आए हैं बग़ावत से।
-चेतन आनंद
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