सूखे पत्ते की भाँति
कांप जाती हूँ
हर आहट पर
मेरा अस्तित्व हिचकोले खाने लगता है
टूटती रस्सी के झूले जैसा
थरथराहट के बावजूद
अपरिपक्व चपला सी मैं
माँ के गर्भ में ही सुनती रहती
हूँ हर बात
तमाम हलचलें
माँ को अपने
कारण मिलने वाली धिक्कार,
कातर बन्द नैनों में
एक विनती की ज्योति विकसित
करती हुई कहती हूँ
मैं तंग नहीं करूँगी
मेरे परिजनों मुझे मत मारो…
मैं ही सृष्टि का आधार हूँ
मुझे जन्म न दोगे तो
संसार का संतुलन भंग हो जायेगा
क्या संतान उत्पन्न कर पायेंगे सिर्फ़ मर्द?
मेरी कोई ग़लती नहीं है,
मैं बेहद मासूम हूँ
आपके ही प्रगाढ़ सम्बन्धों
का फलित उपहार हूँ
देखो विनती कर रही हूँ
हाथ पैर एक साथ जोड़े
मना रही हूँ आपको ,
सर नीचे झुका रखा है बिना कसूर के भी
अल्ट्रा साउंड में ही देख लो भूल से ही
कितनी तड़प रही हूँ मैं..
माँ की ममतामयी गोद के लिये
मेरी प्रार्थना सुन लो
मत मारो मुझे
आने दो इस संसार में
वादा करती हूँ कभी कष्ट न दूँगी
किसी सपूत से कम न
सिद्ध होऊँगी।
पुरुष स्त्री की अपेक्षा कम
संवेदनशील हो भी सकते हैं
मगर नारी तो ममत्व की देवी है..
हे! माँ आप ही मुझे कोख में शरण दिये रखो,
मुझे बचा लो,बचा लो ,बचा लो,
कहते हैं माता कुमाता नहीं होती
क्या खोया क्या पाया जन्म देकर
ये भविष्य ही बतायेगा ।
अपनी इस अजन्मी बालिका को
दुनिया में आने दो आने दो,आने दो।
-डॉ.यासमीन मूमल
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