कवयित्री उपासना शर्मा की पाँच कविताएँ
1-मनस्वी (बुद्धिमान स्त्री)
कोई मुझको आज़मा ले
हार नहीं मानती हूँ मैं
सबल न सही सशक्त हूँ मैं
दुनिया को दिखाना जानती हूँ मैं
सावित्री हूँ और सीता भी हूँ
लक्ष्मीबाई सी परिणीता भी हूँ
सरोजिनी का सा आत्मबल है
दुर्गा-सी साहसी मीता भी हूँ
बन कल्पना जब उड़ान भरी
अपना गौरव शिखर पर था
आनंदी गोपाल जब थी मैं
तब रोग निवारक पहली थी
कभी मैं इंदिरा कभी लता हूँ
कभी महान टेरेसा हूँ
सारी सृष्टि मुझसे उपजी
मैं जननी सर्वश्रेष्ठा हूँ

2-फिर न कहना तुम कि
ये कहानी नहीं
ये मेरी सच्चाई है
फिर न कहना तुम
कि आँख भर आई है

सपना मेरा पूरा होने को है
बचपन मेरा अब खोने को है
सबके खिलौने लौटा आई हूँ मैं
सखियों से कह दो कि पराई हूँ मैं
चाँद सितारों से बाबुल ने
मेरी डोली सजाई है
फिर न कहना तुम
कि आँख भर आई है

घर उनके आई हूँ पहन चूड़ियाँ
होंगी ख़त्म अब सभी दूरियाँ
उनसे कहूँगी सब अपने जिया की
बलईयाँ मैं लूंगी अपने पिया की
आज मेरी खुशियाँ
माँ के आँचल ने बुलाई हैं
फिर न कहना तुम
कि आँख भर आई है

आई है खबर उनको जाना ही होगा
मुझसे पहले लिया वचन, निभाना ही होगा
आरती उतारी और तिलक है किया
लौटाओगे ज़रूर, ये वचन है लिया
उम्र भर इन्तज़ार की कसम उठाई है
फिर न कहना तुम
कि आँख भर आई है

देहरी पर आँखें बिछाना ही है
सुना है,
इस गाँव में से सेना को जाना ही है
कुछ पल के लिए वो आ तो सकेंगे
मेरे बिफरे से मन को समझा तो सकेंगे
उनकी राहों पे मैंने पलकें बिछाई हैं
फिर न कहना तुम
कि आँख भर आई है

आज अपने मन की सब उनसे कहूँगी
सोलह सिंगार कर दुल्हन-सी सजूंगी
चमकेगी बिंदिया और गजरा महकेगा
मन का पपीहा देख उनको चहकेगा

मेहंदी का रंग और लाल हुआ जाता है
आदित्य को भी जैसे मलाल हुआ जाता है
बजती पायलिया मेरी उनको रिझाएगी
चूड़ियों की छन-छन सरगम सुनाएगी

वो बैठक तक आए और सबसे मिले
अम्मा और बाऊजी के चेहरे खिले
मैं आहट को उनकी तरसती रही
राह देख-देख अखियाँ बरसती रहीं
मेरी बदनसीबी फिर से घिर आई है
फिर न कहना तुम
कि आँख भर आई है

सावन और भादों जाने कब बीते
समय से इंसान कब कहाँ जीते
उम्र मेरी मेरे हाथों से अब छूट चुकी है
कुमकुम की टीका और काँच की चूड़ियाँ
सब टूट चुकी हैं

उनके बिना मैं जीती भी कैसे
जीवन गरल मैं पीती भी कैसे
साँसों की डोर अब तोड़ दी है मैंने
अपने पथिक तक अपनी राह मोड़ ली है मैंने
उनका साथ रहा न रहा
ये अब परछाई है
फिर न कहना तुम
कि आँख भर आई है

3-चलो लौट चलें
अब तो कई बरस बीते
चलो बंधु अब लौट चलें
वसुधा ने खबर भेजी है
चलो बंधु अब लौट चलें

सुरभित इन हवाओं ने
श्यामल इन घटाओं ने
फूलों की डगर भेजी है
चलो बंधु अब लौट चलें

गाँव के पनघट ने
पोखर के पानी ने
सरसों की सौरभमय
पुरवा सुहानी ने
बाकी तेरी कसर भेजी है
चलो बंधु अब लौट चलें

अम्मा के आँचल से
बाबू के वत्सल को
बहना की राखी ने
भैया के हर पल को
प्यार भरकर ये खबर भेजी है
चलो बंधु अब लौट चलें

साँसों की डोर न टूटे
प्रतीक्षा का छोर न छूटे
हिम्मत-सी दादी की
आवाज़ का ज़ोर न टूटे
फर्ज़ निभाने की खबर भेजी है
चलो बंधु अब लौट चलें

यारों की महफिल
और पुरानी चौपाल
कुछ उनका पर्दा
कुछ हमारे सवाल
कारवां दोस्ती का
तुमसे ही चलेगा
वादा निभा दो
तो चेहरा खिलेगा
वादे निभाने की खबर भेजी है
चलो बंधु अब लौट चलें।

4-मेरी कृति
मेरी परछाईं तुझमें है
तुझसे रोशन मेरी दुनिया
तेरी बातें, तेरी मुस्कान
सबको भाए मेरी मुनिया

कभी जो सोचे मन मेरा
कैसे तुझसे जुड़ पाई थी
मेरे साथ संग राह मेरी
कैसे तुझ तक मुड़ पाई थी

मेरी धड़कन को पाकर तूने
मुझको जीने का काम दिया
मेरे आँचल को थाम के तूने
मुझे माँ होने का नाम दिया

जितनी मुश्किल, जितने संकट
जब-जब तुझ पर घिर आएंगे
बनकर तेरी आधारशिला
फिर जीत के हम दिखलाएंगे

5-ये शहर
इस शहर की दौड़ धूप में
इस भीड़ के बदलते रंग रूप में
जैसे इंसान कहीं
खोकर रह गया है
जानी अनजानी राहों का पथिक
सामाजिक कशमकश के बीचों बीच
शायद कहीं रोकर रह गया है
जब-जब भी मैं सुनता हूँ
ट्रैफिक में फंसी गाड़ियों का शोर
ट्रेनों में बढ़ती भीड़ का शोर
कारखानों के बजते भोपू का शोर
धार्मिक जलसों में बजते घंटों का शोर
हड़तालों में लगते नारों का शोर
जिनमें
भूख से बिलखते बच्चों की चीखें
गरीबी से बेहाल लोगों की कराह
बेरोज़गारी के दानव से लड़ते
और चूर होते युवाओं की थकन
काल के गाल की पगडंडी पर बढ़ती
झुर्रियों की प्रतीक्षा
जो कहीं दबकर रह जाती है
नहीं सुन पाता है ये शहर
असमय मृत्यु का शिकार होते
निरीह लोगों की सिसकियाँ
नहीं समझ पाता है ये शहर
रोज़मर्रा के जीवन को
केवल एक बोझ की तरह ढोते
लोगों की मजबूरियों की घुटन
न चाहते हुए भी अपने सपनों
को चूर-चूर होने देने की आवाज़
धीमे-धीमे होने वाली
इन आवाज़ों का रिसाव
इस शहर को तो नहीं
पर शायद मेरे हृदय को
द्रवित व लहूलुहान
कर देने के लिए काफी हैं

क्यों हो गए हैं हम
इतने स्वार्थी व बेचैन
कि अपने दायरे से निकलकर
सोच ही नहीं पाते
या फिर
शायद सोचना चाहते ही नहीं
ख़ैर
छोड़िये इन सब बातों को
मैं तो बस यूँही
आपमें शायद अब तक जीवित
मानवता के रेशे तलाश रहा था
देखें किस रेशे की चुभन
आपके भीतर तक पहुँचती है
                 -ः-

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