आपदा, संकट एवं अभाव के समय में हमारा राष्ट्रीय चरित्र

लेख-

लेखक
डाॅ. अशोक कुमार गदिया

हमारे देश में जब भी कोई संकट की घड़ी आती है तो हमारा समाज एवं सरकारें किस तरह का व्यवहार करती हैं, उससे हमारे देश का राष्ट्रीय चरित्र आंका जाता है। अभी हम देख रहे हैं कि कोरोना का संकट छाया हुआ है। देश में भयंकर मारामारी मची है। दवाइयों की दुकानों से आवश्यक दवाइयाँ गायब हो गयी हैं। हर जीवनरक्षक दवा अपने निर्धारित दामों से चार गुना, पाँच गुना और कोई-कोई दवा तो दस गुना और उससे भी ज़्यादा दामों पर मिल रही है। वह भी बहुत तलाश और मिन्नतों के बाद। ऐसा क्यों हो रहा है? क्योंकि लोग इस मुश्किल वक्त में भी कालाबाज़ारी एवं मुनाफाखोरी से बाज नहीं आ रहे हैं। मैं पिछले 50 सालों से देख रहा हूँ कि जब भी हमारे देश में किसी वस्तु की कमी हो जाये तो वह वस्तु ज़रूरतमंद को कभी नहीं मिलेगी। और मिलेगी भी तो उसकी बेहताशा कीमत चुकानी पड़ेगी। इस सबके चलते गरीब एवं मध्यम वर्ग तो बस पिस जाता है या भगवान भरोसे हो जाता है। वस्तु चाहे खाने-पीने की हो, दवा हो, आॅक्सीजन एवं अन्य स्वास्थ्य सम्बन्धित सेवाएँ हों, रसोई गैस हो, केरोसीन हो, डीजल व पेट्रोल हो, जब भी कमी हो जाये मारामारी, कालाबाज़ारी एवं मुनाफाखोरी ऐसे ही होती है। फिर इस अभावग्रस्त स्थिति को सुधारने के नाम पर सरकारी अमला बीच में कूदता है और वह ऐसी स्थिति पैदा कर देता है कि मत पूछो। वह और भी अराजकता, लूटमार एवं भ्रष्टाचार का वातावरण तैयार कर देता है। जिसमें पनपता है भाई-भतीजावाद, व्यभिचार, दुराचार एवं पक्षपात। इससे पता चलता है कि हमारा समाज विषम परिस्थितियों में कितना सभ्य है। अब आते हैं सरकारों पर, हमारे देश में जब भी संकट की घड़ी आती है चाहे महामारी हो, बाढ़ हो, सूखा हो, ज़ातिगत दंगे हों या और कोई राष्ट्रीय आपदा, सरकारें ऐसे हाथ बांधे खड़ी हो जाती हैं जैसे गरीब गाय बिल्कुल बेबस। दुनियाभर की बैठकें, दुनियाभर के भाषण, टी.वी.-रेडियो पर संदेश, उपदेश एवं नये-नये नियम और क़ानून। लेकिन ज़मीनी स्तर पर कोई काम नहीं सब राम-भरोसे।
अब कोरोना को ही ले लो, दिसम्बर 2019 से विश्व स्वास्थ्य संगठन भारत सरकार को आगाह कर रहा था। बता रहा था कि जिस स्तर पर यह महामारी फैलेगी। उस स्तर पर आपके पास स्वास्थ्य एवं उपचार की सुविधाएँ नहीं हैं। दिसम्बर 2019 से सरकार इन चेतावनियांे को नज़र अन्दाज़ करती रहीं। अन्त में जब महामारी सिर पर आ खड़ी हुई तो सरकार ने तालाबन्दी कर दी। यह बोलकर कि हम सारी व्यवस्थाएँ कर रहे हैं।
पूरा देश तीन महीने तक तालाबन्दी में रहा। स्कूल-काॅलेज तो पूरा साल ही बन्द रहे। अरबों-खरबों की अर्थव्यवस्था को नुकसान हुआ। बेरोज़गारी बेहताशा बढ़ी। सारा कुछ इस देश की गरीब जनता ने सहन किया। इस आशा में कि शायद इस नुकसान की कीमत पर भी देश की स्वास्थ्य व्यवस्था विश्व स्वास्थ्य संगठन के मापदण्डों के आस-पास पहुँच जाए। सरकार ने आश्वस्त किया कि हमने सारी तैयारी कर ली है, अब डरने की कोई बात नहीं। आप सिर्फ मास्क लगाओ, दो गज दूरी रखो, जब टीका लगाने का नम्बर आये टीका लगवाओ और मस्त रहो। सरकार ने खुले दिल से सारी परीक्षाएँ बिना पढ़ाए करवायीं। सारी विधानसभाओं, नगर पालिकाओं, ग्राम पंचायतों के चुनाव करवाये, बड़े-बड़े मेले लगवाये, कुम्भ करवाये, धार्मिक आयोजन करवाये, लोकसभा, राज्यसभा एवं विधानसभाओं के अधिवेशन करवाये, सरकारें बनवायीं, सरकारें तुड़वाई और बड़ी-बड़ी जनसभाएँ करवायीं, सीमा विवाद करवाये एवं उन्हें सुलझवाया। मगर आम जनता से कहा कि तुम संयम रखो, मास्क लगाओं एवं दो गज की दूरी रखो और टीका लगवाआ,े फिर भी बीमार हो जाओ तो चिन्ता मत करो, हमने सारी व्यवस्था कर रखी है, तुम्हें मरने नहीं देंगे। फिर जनता क्या करती, मरती-पिटती अपने रोज़मर्रा के कामों पर आ गयी। अब मेट्रो में दो गज दूरी कैसे हो सकती है? रोडवेज की बस में दो गज दूरी कैसे हो सकती है? वहाँ तो छत तक पर बैठकर खुली हवा में सफ़र करना पड़ता है। टैम्पो में दो गज दूरी कैसे रह सकती है? गरीब एवं मध्यमवर्गीय समाज जब रोटी कमाने निकलता है तब वह अपनी शर्तों पर रोटी नहीं कमा सकता, यह हमारे ऊपर बैठे लोगों को शायद पता नहीं या पता है तो भी वह इसका ध्यान नहीं करते। ऐसे नियम कानून बनाते हैं जिसका पालन असम्भव है। ऐसे चलते-चलते फिर मार्च 2021 आ गया। लोग फिर बीमार पड़ने लगे। महाराष्ट्र में हालात बिगड़ने लगे, तब भी केन्द्र सरकार नहीं चेती। महामारी अपने पाँव पसारने लगी और उसने पूरे देश को अपने आगोश में ले लिया। फिर क्या हाल हुआ, अस्पतालों में पैर रखने की जगह नहीं, कहीं भी आॅक्सीजन नहीं, दवा नहीं, उपचार नहीं, बेड नहीं, कोई सुनने वाला नहीं। श्मशानों में लाशों के ढेर लग गये, मृत शरीरों को जलाने के लाले पड़ गये, श्मशान घाट में लाइनें लग गयीं, हर घर में मातम पसर गयां। इंसान, इन्सान की परछाईं से डरने लगा। कहीं कोई मदद नहीं, कोई पुकार नहीं, कहीं सुनवायी नहीं, सरकारों के बेतुके नियम-क़ानून एवं हास्यास्पद घोषणाएँ, ऐसा लगा मानो सबकुछ थम गया। कोई शासन व्यवस्था नहीं। सब तरफ क्रन्दन ही क्रन्दन। अब तक एक अनुमान के अनुसार हिन्दुस्तान में 10 लाख लोग मर चुके हैं। और कितने मरेंगे पता नहीं। ऐसा क्यों हो रहा है? इनके मुख्य कारण जो मुझे समझ में आते हैं वे निम्न प्रकार से हैं-
1. सरकारों का समय पर काम नहीं करना।
2. देश में स्वास्थ्य सेवाओं का नितान्त अभाव।
3. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के स्तर पर हमारे देश की स्वास्थ्य सेवाएँ नगण्य।
4. सरकार एवं समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं संवेदनशीलता की कमी।
5. जनता में जागरूकता एवं अनुशासन की कमी।
6. सरकार गैर ज़िम्मेदार एवं जनता घोर स्वार्थी।
इन परिस्थितियों में तो देश के हालात को ऐसा होना स्वाभाविक है। जब भी कोई बड़ी विपदा आती है हमारी सरकार निर्णय लेती है कि अब हम पूरी तैयारी करेंगे और ऐसी स्थिति अब नहीं आने देंगे। परन्तु विपदा टलते ही सब कुछ फिर वैसा ही हो जाता है।
इसके मुख्य कारण निम्न हैं:-
1. समाज न तो जागरूक है, न संगठित है- पूरा समाज एकाकी जीवन जी रहा है। हर व्यक्ति अपने या अधिकतम अपने परिवार तक सीमित हो गया है, उसे न देश की चिन्ता है और न समाज की। आज पूरा विश्व हमारे ऊपर हँस रहा है। कहाँ विश्वशक्ति बनने की बात कर रहे थे, कहाँ हम 5000 ट्रिलीयन डाॅलर की अर्थव्यवस्था बनने की बात कर रहे थे और कहाँ हम एक छोटी-सी महामारी में ऐसे बिखर गये जैसे ताश के पत्तों का महल। हमारे देश का हर व्यक्ति स्वार्थ साधना चाहता है। स्वार्थ पूरा करने के लिये वह देश एवं समाज के प्रति कोई भी गलत कार्य करने को तुरन्त तत्पर हो जाता है। फिर देश एवं समाज कैसे बचेगा। इसलिये आवश्यकता है समाज को संगठित कर जागरूक करने की। यदि हमारा समाज अपने अधिकारों एवं दायित्वों के प्रति सजग एवं संवेदनशील हो जाता है तो देश अपने आप ठीक हो जायेगा। यह कार्य देश के नौजवानों को उचित शिक्षा एवं संस्कार देकर ही किया जा सकता है।
2. सभी सरकारों को जनता के प्रति जवाबदेह होना पूर्ण रूप से निष्पक्ष होकर अपनी संवेधानिक जिम्मेदारी को निभाना- सरकार का मुख्य कार्य, जनता को हर कीमत पर न्याय, सुरक्षा एवं सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार प्रदान करना है। सरकार सबकुछ करने का प्रयास करती है पर उपरोक्त तीन काम कभी ईमानदारी से नहीं करती, बल्कि सरकारें पूरी ईमानदारी से निम्न तरीके के नाटक कर जनता को बेवकूफ बनाती है।
1. समाज में आठ आधारों पर वर्ग विभाजन करके वर्ग विद्वेष फैलाना और उसे वर्ग संघर्ष तक ले जाना- ये आठ राजनीतिक आधार हंै क. धर्म, ख. जाति, ग. भाषा, घ. क्षेत्रीयता, ङ उम्र, च. लिंग, छ. गरीब और अमीर ज. उत्पादक-उपभोक्ता। भारत के सभी राजनैतिक दल आठों आधारों पर वर्ग संघर्ष के प्रयत्नों में पूरी ईमानदारी से सक्रिय हैं। सभी दल पूरी तन्मयता से इस प्रयत्न में लगे हंै। सात आधार तो ऐसे थे जिनसे गांव टूटे, समाज टूटा किन्तु परिवार नहीं टूटे थे। लिंग भेद ने तो परिवारों की एकता को ही छिन्न-भिन्न करना शुरू कर दिया है। पुरुष शोषक है और महिला शोषित, इस अर्द्धसत्य ने परिवारों में वर्ग निर्माण तो शुरू कर ही दिया है अब वर्ग संघर्ष भी होना शुरू हो जायेगा। कल्पना कीजिये यदि पति-पत्नी के बीच अविश्वास की दीवार खड़ी हुई तो भविष्य में कैसे बच्चे पैदा होंगे? कैसे उनका पालन-पोषण होगा और कैसे उनके संस्कार होंगे? किन्तु हमारे देश के राजनेताओं को समाज के लाभ-हानि के आंकलन से कोई मतलब नहीं। उन्हें तो अपने लाभ के लिये महिलाओं को वर्ग के रूप में खड़ा करना है, जिसमें वे सफल हो रहे हैं।
2. समस्याओं का ऐसा समाधान खोजना कि उस समाधान से ही एक नई समस्या पैदा होती हो- हमारे देश के सभी राजनैतिक दल पूरी सक्रियता से यह कार्य किया करते हैं। भारत की अधिकांश समस्याएँ इनके प्रयत्नों (बाई प्राॅडक्ट) का प्रतिफल है।
3. समस्या की प्रकृति के विपरीत समाधान की प्रवृत्ति- आर्थिक समस्याओं का आर्थिक, प्रशासनिक समस्याओं का प्रशासनिक और सामाजिक समस्याओं का सामाजिक समाधान ही खोजा जाना चाहिए। किन्तु भारत में आर्थिक समस्याओं का प्रशासनिक व सामाजिक, सामाजिक समस्याओं का आर्थिक व प्रशासनिक और प्रशासनिक समस्याओं का आर्थिक व सामाजिक समाधान खोजने का एक प्रचलन-सा चल पड़ा है। डाकुओं और हत्यारों के हृदय परिवर्तन की बात की जाती है जबकि दहेज, नशा, जुआ, छुआछूत जैसी सामाजिक बुराइयों के लिये कानून बनाने की बात की जाती है। मूल्य वृद्धि को रोकने के लिये भी कठोर कानून की वकालत करने वाले बहुत लोग मिलते हैं, कुछ लोग तो ऐसे भी मिलते हंै जो चोरी-डकैती को मजबूरी बताते हैं और ब्लैक को अपराध। जबकि पूरा देश जानता है कि चोरी, डकैती, बलात्कार, मिलावट, हिंसा आदि अपराध हैं, दहेज, छुआछूत जातिप्रथा, महिला उत्पीड़न सामाजिक समस्याएँ हैं। जबकि वेश्यावृत्ति, ब्लैक, बालश्रम आदि आर्थिक समस्याएँ हैं।
4. ‘राष्ट्र’ शब्द को ऊपर उठाकर ‘समाज’ शब्द को नीचे गिराना- पूरे भारत में निरंतर यह बात समझाई जा रही है कि राष्ट्र समाज से बड़ा है। राष्ट्र किसी निश्चित भौगोलिक सीमाओं से घिरा हुआ भू-भाग होता है किन्तु समाज की कोई भौगोलिक सीमा नहीं होती है। पाकिस्तान और अमेरिका का रहने वाला समाज का अंग तो होता है किन्तु राष्ट्र का नहीं। स्पष्ट है कि समाज राष्ट्र से बड़ा होता है। भारतीय, पाकिस्तानी, हिन्दू, मुसलमान आदि समाज के हिस्से हैं, प्रकार नहीं; किन्तु समाज की परिभाषा को बदलकर निरंतर संकुचित करने के प्रयत्न जारी हैं। अनेक पढ़े-लिखे लोग भी ‘व्यक्ति’ और ‘नागरिक’ शब्द का अंतर नहीं समझते हंै जबकि व्यक्ति समाज का अंग होता है और नागरिक राष्ट्र का।
5. वैचारिक मुद्दों पर बहस को पीछे करके भावनात्मक मुद्दों को आगे लाना- भारत का हर राजनैतिक दल लगातार यह प्रयत्न करता है कि समाज में भावनात्मक मुद्दों पर बहस आगे रहे और वैचारिक मुद्दे पीछे छूट जायें। भारत के भाग्य विधाता जिस संसद में बैठकर भारत की समस्याओं के समाधान पर विचार मंथन करते हंै उसका स्वरूप भी भावनात्मक ही अधिक होता है, वैचारिक कम। संसद में भाषा और वाक्युद्ध से यह बात और स्पष्ट होती है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि भारत मंे प्याज या मंदिर जैसे शुद्ध भावनात्मक मुद्दों पर राष्ट्रीय चुनाव तक जीतने के सफल प्रयास भी हो चुके हैं। किसी नेता की मृत्यु या जेल जाते ही उसकी विशुद्ध गृहिणी को उसके स्थान पर स्थापित करने के प्रयत्न तो अब वर्तमान राजनीतिक प्रथा के रूप में शामिल हो चुके हैं। भारत में कुछ ऐसा वातावरण बना दिया गया है कि यदि कोई राजनेता या दल वैचारिक मुद्दे को आगे लाने की कोशिश भी करे तो वह पूरी तरह असफल हो जाता है।
6. समाज को शासक और शासित में बांटकर दोनों के मनोबल में फर्क करने का संगठित कुप्रयास- इसके लिये समाज के आम लोगों को लगातार अशिक्षित और अयोग्य बता-बताकर उनका मनोबल इस तरह तोड़ा जाता है कि आदमी स्वयं को कमजोर समझने लगता है। इधर, समाज के लोगों का तो मनोबल तोड़ा जाता है और राजनेताआंे का मनोबल बढ़ाया जाता है। समाज की विभिन्न इकाइयों को या तो किसी छोटे से छोटे मामले में भी निर्णय नहीं करने दिया जाता या उनके ऐसे किये गये निर्णय को हानिकारक सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। नमक कौन-सा खाना है या विवाह की उम्र क्या हो, ऐसे नितान्त व्यक्तिगत या पारिवारिक मामलों में भी निर्णय का अधिकार शासन ने अपने पास रख लिया है। परिणामस्वरूप आम नागरिक की चिन्तनशक्ति निरंतर घटती जा रही है और वह पूरी तरह शासन पर निर्भर होता जा रहा है। विचारणीय प्रश्न यह है कि यदि भारत का औसत नागरिक नितान्त पारिवारिक या स्थानीय मामलों में भी निर्णय की क्षमता नहीं रखता है तो उन्हीं के बीच का तथा उन्हीं के समान औसत योग्यता का व्यक्ति सम्पूर्ण भारत के लिए नियम-कानून बनाने की योग्यता कहाँ से प्राप्त कर लेता है? उसकी अन्य लोगों से अधिक योग्यता का मापदंड क्या है? संसद का चुनाव जीतते ही वह सामान्य व्यक्ति भी इतना महत्वपूर्ण कैसे हो जाता है? यह एक ज्वलंत प्रश्न है।
7. समाज द्वारा स्वयं को अपराधी मानने की भावना का विकास- इसके लिये इतने अधिक कानून बनाये जाते हैं कि समाज का कोई भी व्यक्ति उन कानूनों का ठीक से पालन ही नहीं कर पाता। गै़रकानूनी कार्यों को समाज में अपराध के रूप में प्रचारित कर देने से अपराध और ग़ैरकानूनी शब्द का भेद मिट जाता है और हर गै़रकानूनी कार्य करने वाला स्वयं को अपराधी मानने लगता है। शासन से जुड़े लोग तो समाज के लोगों को दोषी बताते ही हैं। कुछ धार्मिक लोग भी हमेशा हमें ही अपराधी बताकर हमारा मनोबल तोड़ते रहते हैं। कुछ धार्मिक संस्थाएँ तो ’’हम सुधरेंगे जग सुधरेगा’’ को नारे के रूप में ही प्रचारित करती रहती हैं। इस प्रचार से वास्तविक अपराधियों को राहत मिलती है और समाज का मनोबल टूटता है। भारत में कुल मिलाकर जितने कानूनों की आवश्यकता है उससे पचास गुना अधिक कानून हंै। ऐसे कानूनों की संख्या लगातार बढ़ाई जा रही है।
8. शासन की भूमिका बिल्लियों के बीच बंदर के समान- बिल्लियों के बीच बिना परिश्रम रोटी खाने वाले बंदर की तीन प्रकार की भूमिकाएँ हुआ करती हैंः (क.) बिल्लियों की रोटी कभी बराबर न हो, (ख.) बंदर हमेशा रोटी बराबर करता हुआ दिखे किन्तु करे कभी नहीं और (ग.) छोटी रोटी वाली बिल्ली के मन में असंतोष की ज्वाला लगातार धधकती रहे। भारत में सभी राजनैतिक दल पूरी ईमानदारी से तीनों काम कर रहे हैं। आर्थिक असमानता दूर करने में पिछले साठ वर्षों से सभी दल लगातार प्रयत्नशील हंै। कई दल तो चुनावों में ’’गरीबी हटाओ’’ जैसा चुनौती भरा नारा लगाकर चुनाव मैदान में उतरते हैं किन्तु आर्थिक असमानता लगातार बढ़ती जाती है। सभी राजनैतिक दलों के नेता झोपड़ी वालों को लगातार यह बात समझाते रहते हैं कि उसकी झोपड़ी की बगल में बना हुआ महल ही उसकी झोपड़ी में सूर्य की किरणों को आने से रोक रहा है। तुम मेरी मदद करो तो अगले पांच वर्षों में इस भवन को गिराकर यह बाधा मैं दूर कर दूंगा। झोपड़ी वाला साफ देख रहा है कि उसकी झोपड़ी वैसी ही है जैसी पहले थी लेकिन आज भी राजनैतिक दल झोपड़ी वाले के मन में पड़ोसी के प्रति असंतोष की ज्वाला अधिक से अधिक जलाये रखने के लिये प्रयत्नशील है।
9. आर्थिक असमानता वृद्धि का प्रजातान्त्रिक स्वरूप- प्रत्येक राजनैतिक दल यह भरपूर प्रयत्न करता है कि आर्थिक असमानता वृद्धि के उसके प्रयास पूरी तरह अप्रत्यक्ष भी हों और प्रजातांत्रिक भी। इसका तरीका यह है कि (क) जो वस्तुएँ गरीब लोग अधिक और अमीर लोग कम उपयोग करते हैं उन वस्तुओं पर अप्रत्यक्ष कर और प्रत्यक्ष सब्सिडी का प्रावधान करें, (ख) जो वस्तुएँ अमीर लोग ज्यादा और गरीब लोग कम उपयोग करें उनपर प्रत्यक्ष कर और अप्रत्यक्ष सब्सिडी देनी चाहिये। यदि भारत की पूरी आबादी को तीन भाग (क) गरीब (ख) मध्यम (ग) सम्पन्न वर्ग में बराबर-बराबर बांट दें और समीक्षा करें तो पायेंगे कि गरीब लोग 70 प्रतिशत साइकिलों का उपयोग करते हैं और अमीर लोग शून्य। जबकि रसोई गैस के मामले में इसके उलट अर्थात् गरीब लोग पांच प्रतिशत रसोई गैस उपयोग करते हैं और सम्पन्न लोग साठ प्रतिशत। भारतीय अर्थव्यवस्था में साइकिल पर प्रति साइकिल सौ रुपये की सब्सिडी दी जाती है। रसोई गैस के मामले में साम्यवादी और पूंजीवादी दोनों ही आंदोलन करते हैं और साइकिल के मामले में दोनों ही चुप हो जाते हैं। इसी तरह सम्पन्न वर्ग की आय और व्यय में कुल कृत्रिम ऊर्जा का 70 प्रतिशत खर्च होता है और गरीब वर्ग में चार से पांच प्रतिशत। कृत्रिम ऊर्जा की मूल्य वृद्धि का सभी राजनैतिक दल बढ़-चढ़कर विरोध करते हैं जबकि सभी प्रकार के अनाज, खाद्य, तेल, दाल, वनोपज आदि पर टैक्स का कोई विरोध नहीं होता। यहाँ तक कि पशुचारे में काम आने वाली खली पर भी लगने वाले टैक्स का विरोध नहीं होता। यह बात पूरी तरह प्रमाणित है कि ग्रामीण उत्पादनों पर कर लगने और आवागमन सस्ता होने से शहरी अर्थव्यवस्था मजबूत होती है और ग्रामीण कमजोर। सभी राजनैतिक दल यातायात को सस्ता करने की लगातार माँग करते हैं किन्तु ग्रामीण उत्पादनों पर कर लगने के विरुद्ध कोई आंदोलन नहीं होता। ग्रामीण व्यवस्था पूरी तरह तबाह हो गई है। शहरी अर्थव्यवस्था लगातार प्रगति कर रही है किन्तु आज भी सभी राजनैतिक दल अपने उसी एजेन्डे पर लगातार काम कर रहे हैं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था तभी सुदृढ़ होगी जब गाँव स्वावलम्बी होंगे। गाँव स्वावलम्बी तब होंगे जब प्रत्येक गाँव को एक आर्थिक इकाई के रूप में विकसित किया जायेगा। हमारे गाँव सदियों से स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व तक आर्थिक इकाई थे। कई अर्थों में स्वावलम्बी भी थे जो अब नहीं रहे।
10. प्राथमिकताओं के क्रम में सुरक्षा और न्याय की अपेक्षा जन कल्याणकारी कार्यों का उच्च स्थान रखना- बिल्कुल सामान्य-सी बात है कि सुरक्षा और न्याय शासन का प्रथम दायित्व होता है किन्तु भारत की सम्पूर्ण राजनैतिक व्यवस्था में सुरक्षा को बिल्कुल अंतिम प्राथमिकता में रखा गया है। भारत की केन्द्रीय व प्रान्तीय सरकारों के वार्षिक बजट को मिलाकर भी उस बजट का सिर्फ एक प्रतिशत ही पुलिस और न्यायालय पर खर्च होता है। इस एक प्रतिशत बजट में से भी उसका नब्बे प्रतिशत खर्च सुरक्षा और न्याय से हटकर छुआछूत निवारण, बालविवाह, बालश्रम, नशामुक्ति, महिला सशक्तीकरण, आदिवासी हरिजन कानून, दहेज उन्मूलन आदि कम महत्वपूर्ण कार्यों पर खर्च हो जाता है। सुरक्षा और न्याय जैसे प्रयत्नों पर तो कुल बजट का सौ रुपये में से दस नया पैसा ही खर्च होता है। भारत की पुलिस और न्यायालय इन महत्वहीन या कम महत्व के कार्यों के दबाव से इतने अतिभारित हो जाते हैं कि- 1. चोरी, डकैती, लूट, 2. बलात्कार, 3. मिलावट, कमतौल 4. जालसाजी, 5. हिंसा, आतंक जैसे पांच प्रकार के गम्भीर अपराध उनके नीचे दब जाते हैं। पुलिस और न्यायालय का बजट बढ़ाये बिना उन पर दायित्वों का बोझ बढ़ाते जाने से दोनों की कार्य क्षमता लगातार घटती गई है। जम्मू-कश्मीर सरकार पर्याप्त सुरक्षा नहीं दे सकी, इसलिये वहाँ सेना भेजनी पड़ी। वहीं सरकार पुलिस पर दायित्व डाल रही है कि पचास से अधिक बाराती एक जगह भोजन करें तो पुलिस उन्हें रोके। छत्तीसगढ़ सरकार नक्सलवाद नहीं रोक पा रही है। उसे तम्बाकू रोकने का काम बहुत महत्वपूर्ण दिख रहा है। क्या तम्बाकू या बाराती नियंत्रण जैसे कार्य इतने अधिक महत्वपूर्ण हंै कि उन्हें सुरक्षा से भी अधिक महत्व दिया जाये? एक बैलगाड़ी के बैलों की क्षमता चालीस क्विंटल वजन ढ़ोने की है और साठ क्ंिवटल वजन लदा होने से गाड़ी अतिभारित है तब उस पर और वनज का प्रयत्न घातक है, चाहे उस पर वजन लादने वाला मालिक मूर्खतावश ऐसा कर रहा हो अथवा चतुराईवश।
11. हमारे देश के मतदान के कानून को बदलना होगा- जब कोई जनप्रतिनिधि चुनाव जीतकर सरकारी पद पर आसीन हो जाता है चाहे वह प्रधानमंत्री हो या प्रधानमंत्री की मंत्रिपरिषद का सदस्य हो या किसी राज्य का मुख्यमंत्री हो या उस राज्य के मुख्यमंत्री के मंत्रिपरिषद का सदस्य हो जब तक वह मंत्रिपरिषद भंग नहीं हो जाती वह व्यक्ति खुलेआम किसी पार्टी विशेष की चुनाव सभा को कैसे सम्बोधित कर सकता है वह तो एक सरकारी नुमाइन्दा है उसकी तो नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। यह सरासर अपने पद का दुरुपयोग है। कानून में इस बात की पूरी व्यवस्था की जानी चाहिये कि इस तरह के महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोगों को चुनावी प्रक्रिया से दूर रखा जाए।
12. हमारे देश की चिकित्सा शिक्षा में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता- हमारी चिकित्सा शिक्षा परिषद के मापदण्ड इतने कड़े और अव्यवहारिक हैं कि उनके चलते चिकित्सा शिक्षा संस्थान खोलना और उसे ठीक से चलाना असम्भव है। जिसके फलस्वरूप लाखों विद्यार्थी हर वर्ष चिकित्सा में शिक्षा प्राप्त करना चाहते हुए भी प्रवेश नहीं ले पाते। यदि हमारी सरकार इन नियमों को व्यवहारिक बनाए तो हमारे यहाँ प्रतिवर्ष लाखों डाॅक्टर एवं चिकित्सा सहयोगी तैयार होंगे और देश के कोने-कोने में जाकर अपनी सेवाएँ देंगे। हम अपने देश में ही नहीं सम्पूर्ण विश्व मे ंचिकित्सा के क्षेत्र मे अपनी सेवाएँ दे सकेंगे।
13. अपना उल्लू सीधा करना ही मकसद- हमारे देश की सभी सरकारों का एक मात्र उद्देश्य रहता है कि कैसे इस देश की गरीब जनता को मुफ्त राशन, कर्ज़माफी, आरक्षण, धार्मिक उन्माद आदि में उलझाकर रखना और उनको बेवकूफ बनाकर वोट हासिल करना और सत्ता में बने रहना विकास के नाम पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों एवं विदेशी संस्थाओं के हित साधना भर रह गया है।
अब समय आ गया है जब देश के नौजवान उठें, समझें एवं अपनी आवाज बुलन्द करें और इस सोये हुए समाज को जगायें ताकि समाज जागरूक एवं संवेदनशील हों, जिसे अपने अधिकारों एवं दायित्वों का पूर्ण ज्ञान हो और वह इसको हर कीमत पर हासिल करें और जागरूक समाज एक जिम्मेदार एवं जवाबदेही सरकार बनायें। जो ईमानदारी से जनता के सेवक के रूप में पूर्ण ईमानदारी से निष्पक्ष होकर सारे पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर कार्य करें। तब हमारा राष्ट्रीय चरित्र ऊँचा होगा जिस पर हम गर्व कर सकते हैं।

!! जय हिन्द!!

(लेखक मेवाड़ विश्वविद्यालय,
राजस्थान के कुलाधिपति हैं)

News Reporter

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