महज सरकार की आलोचना नहीं आता राजद्रोह के दायरे में

                                                                                         -नंदिता झा-
धारा 124ए राजनीतिक विद्वेष में न लगाई जाए। कुछ विशेष पुलिस वालों को वर्कशॉप अयोजित कर सिखाया जाए कि आईपीसी की धारा 124ए का प्रयोग कहाँ किया जाए और कहाँ नहीं किया जाए? मुम्बई हाईकोर्ट के जस्टिस एसएस शिंद और एमएस कार्णिक की खंडपीठ ने कंगना रनौत बनाम महाराष्ट्र राज्य केस में अन्तरिम सुरक्षा देते हुए राजद्रोह के मुकदमे में कहा कि अगर सरकार द्वारा खींची गयी लकीरों के भीतर कोई नहीं आता तो क्या वे राजद्रोही है? साथ ही अभियोजन पक्ष से कहा कि पुलिस वालों को वर्कशॉप अयोजित कर सिखाया जाए कि आईपीसी की धारा 124ए का प्रयोग कहाँ किया जाए और कहाँ नहीं किया जाए। आमतौर पर लेखकों, कार्टूनिस्टों, सामाजिक कार्यकर्ताओं की आवाज दबाने के लिए इस धारा का प्रयोग न किया जाए। 2016 के बीच में राजद्रोह के 22 मामले दर्ज किए गए। 2015 में चार मामलों की सुनवाई अदालत में पूरी हुई और चारों मामलों में आरोपी बरी हो गए।वहीं2016 में तीन मामलों की सुनवाई पूरी हुई जिसमें दो बरी हो गए। 2016 में सुप्रीम कोर्ट नें राजद्रोह के एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि किसी के खिलाफ 124ए यानी राजद्रोह का मुकदमा दर्ज करने से पहले केदार नाथ बनाम बिहार राज्य में दिए गए निर्देश का अनुपालन आवयश्क है। हाल के वर्षों में आईपीसी की धारा 124ए के दुरुपयोग को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी की थी। हद तो यह है कि भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच में पाकिस्तान के जीत जाने पर पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाए जाने पर भी पुलिस राजद्रोह का मुकदमा दर्ज कर लेती है। आशीष नंदी ने गुजरात दंगे पर अपने लेख में राज्य सरकार की आलोचना की तो उनपर भी राजद्रोह लगाया गया। जिसपर अदालत ने फटकार लगाते हुए इसे हास्यास्पद केस कहा। हालांकि 1962 में केदारनाथ एक कम्युनिस्ट लीडर द्वारा एक भाषण के दरमियान इंडियन कांग्रेस लीडर को गुण्डा और सीआईडी को कुत्ता कहने पर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज किया गया था, जिसमें निचली अदालत ने एक साल के कड़े दंड से दंडित किया था। इसी मामले की अपील में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राजद्रोह के लिए भाषणों और अभिव्यक्त किये विचारों को तभी दंडित किया जाए जब उसके कारण किसी तरह की हिंसा, असंतोष या फिर सामाजिक असंतुष्टिकरण बढ़ा हो। भारतीय दंड संहिता 1860 में राजद्रोह के लिए उपयुक्त धारा 124ए 1870में सर जेम्स स्टीफन द्वारा जोड़ा गया ताकि ब्रिटिश भारतीय शासन के विरुद्ध राष्ट्रवादी विचारों और आवाजों को दबाया जा सके। आईपीसी 124ए के तहत जो कोई बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमानना पैदा करेगा या पैदा करने का प्रयत्न करेगा तो दोषी पाए जाने पर तीन वर्ष से आजीवन कारावास का दंड दिया जा सकता है। साथ ही जुर्माने का प्रावधान है। 1891 में पहला राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया क्वीन एम्प्रेस बनाम जोगिंदर चन्दर बोस जिसमंे बंगाली मैगजीन बांगोबसी में ब्रिटिश द्वारा लाये गए कानून में ऐज ऑफ कंसेंट को लेकर लेख लिखा गया कि यह कानून हिन्दू विरोधी और हिन्दू नैतिकता के विरुद्ध माना। बाल गंगाधर तिलक के विरुद्ध भी केसरी अखबार में तीन संपादकीय लेखों पर राजद्रोह लगाया गया, जिसमंे उन्हें 6 साल की मांडले में कैद और निर्वासन की सजा हुई थी। महात्मा गांधी पर भी राजद्रोह का मुकदमा लगाया गया, जिसे गांधी जी ने स्वतंत्रता को दबाने का जरिया कहा। आजाद भारत मे 124ए भारतीय दंड संहिता की धारा के औचित्य पर सवाल उठाए गए, इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के विरुद्ध कहा गया। कई बार इसे लोकतंत्र की भावना के विरुद्ध समझा गया। किंतु केदारनाथ बनाम बिहार राज्य केस 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि 124ए को असंवैधानिक नहीं कह सकते, यहाँ शीर्ष अदालत ने अभिव्यक्ति की आजादी के साथ-साथ तर्कसंगत निषेध के अंतर्गत कुछ परिस्थितियों में 124ए को लागू करने की भी छूट दे दी। इसी तरह के एक केस बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य में बलवंत सिंह द्वारा प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उस दिन सार्वजनिक स्थान पर खालिस्तानी जिंदाबाद!! राज करेगा खालसा !! जैसे स्लोगन को दो बार दोहराने पर बलवंत सिंह पर राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया। कोर्ट ने इस मामले में स्लोगन से समाज पर कितना प्रभाव हुआ या सरकार को कितना प्रभावित किया गया इसपर तर्क देते हुए बलवंत सिंह को राजद्रोह के मामले से बरी कर दिया गया। राजद्रोह में दर्ज मामलों को लेकर आजतक न्यायपालिका का मानना है कि 124ए राजनीतिक विद्वेष में न लगाया जाए।राजनीतिक विद्वेष या प्रतिद्वंद्विता के लिए इस कथित धारा का प्रयोग कदापि नहीं होना चाहिए।

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