अल्फ़ाज़ के पंछी-एक विमर्श

अयन प्रकाशन, नई दिल्ली

हार्ड कवर, मूल्य Rs. 240/

कुछ दिनों पहले ही चेतन आनंद जी के ग़ज़ल संग्रह “अल्फ़ाज़ के पंछी” से गुज़रा. अगर आज के साहित्य की बात करूँ तो यह उन विरले पुस्तकों में से है जिसे मैंने पूरी पढ़ी और शिद्दत से पढ़ी.इससे पहले मैंने आर. के. नारायनन की “महात्मा का इंतज़ार” और गिरिराज किशोर की “बा” पढ़ी थी. ऐसा इसलिए कहा की एक पाठक जब अपना समय और समय के साथ अपने भावों को भी उस पुस्तक को समर्पित करता है तो वह बदले में अपेक्षा भी रखता है की उसके समय का सदुपयोग हो और उसके भावों को भी एक पृष्ठभूमि मिले जहाँ वह विस्तार पा सके. ऐसा न होने पर उस पुस्तक और उसमे लिखे का पाठक के लिए कोई महत्त्व नहीं रह जाता. जब पुस्तक को पढ़ते समय आप अनायास ही पृष्ठ-दर-पृष्ठ पुस्तक के ख़त्म होने तक पलटते जाएं तो लेखक और लेखनी दोनों ही अपना इष्ट प्राप्त कर लेते हैं. मैं कोइ समीक्षक या विवेचक नहीं हूँ जो किसी के मूल्यांकन की धृष्टता कर सकूँ और न ही ग़ज़ल विधा का इतना जानकार. पर हाँ, पुस्तक के सम्बन्ध में अपने विचार अवश्य प्रस्तुत करना चाहूँगा. उनके व्याकरण अथवा उनके नियमन पर नहीं अपितु कथ्य और भावों को लेकर. लेखक की लेखनी जब चलती है तो मात्र लेखक के स्वयं की ही नहीं वरन समाज के प्रति उसके नज़रिए को भी रेखांकित करती है. लेखक क्या सोचता है, क्या चाहता है कहीं न कहीं दृष्टिगोचर हो ही जाता है. चेतन जी का ग़ज़ल संग्रह भी ऐसा ही है जब आप इसे पढ़ते हैं तो आप कवि चेतन के साथ-साथ यात्रा करते चलते हैं और इस यात्रा में आप भावों के अनेक पडावों से  गुजरते हैं, ठहरते है, सोचते हैं फिर आगे बढ़ जाते हैं. इसके साथ ही आप कवि के व्यक्तित्व का विश्लेषण भी करते चलते हैं. चेतन जी का नजरिया बहुत व्यापक, सारगर्भित और सरल है. वह अपनी ग़ज़लों को अपनी विद्वता सिद्ध करने का साधन नहीं समझते वह ग़ज़ल को कहन तक ही सीमित रखते हैं. अनावश्यक क्लिष्ट भाषा, रूपकों का अनावश्यक निरर्थक उपयोग इनकी ग़ज़लों में नहीं दिखाई देता है.

“बहुत सीधा, बहुत सादा, बहुत उम्दा लिखा जाए

बड़ी चिंता में बैठा हूँ कि अब क्या-क्या लिखा जाए”

यह व्यक्ति जो जीता है, जो देखता है वही लिखता है.

ऐसा भी कोइ तौर तरीका निकालिये

एहसास को अल्फ़ाज़ के साँचे में ढालिए

स्वाभाविकता ही चेतन जी की सबसे बड़ी खूबी है. इन्होने अपने ग़ज़लों के माध्यम से समाज और व्यक्तिगत दोनों भावों को समान रूप से स्पर्श किया है.

एक पाठक के तौर पर जब मैं कवि की इस लेखन यात्रा का साक्षी बना तो अनेक पड़ावों से गुज़रा. प्रेम के अलग-अलग रूपों को देखा. मात्र शब्दों से ही प्रेम को व्यक्त किया जाए यह आवश्यक नहीं होता. प्रेम तो अव्यक्त होता है और इसे समझने के लिए एक दूसरे के प्रति सच्चे प्रेम, विश्वास का होना ही पर्याप्त है. इसी बात को कितनी ख़ूबसूरती से कहा गया है

“अगर ये प्यार है तो प्यार के दरमियाँ भी हो

न हम बोलें, न तुम बोलो, मगर किस्सा बयाँ भी हो”

 प्रेम में पनपे एकाधिकार और उससे उद्दीप्त स्वार्थ को वह बखूबी बयां करते हैं.

“उसे सूरज दिया, चंदा दिया, तारे दिए, फिर भी

वो कहता है मेरे हिस्से में अब ये आसमाँ भी हो”

 कुछ प्रेम सम्बन्ध मात्र अपना हित साधने के लिए ही प्रायोजित किये जाते हैं. एक बानगी देखिए

“नाम अपना उसने मेरे दिल पे लिक्खा और फिर

उम्रभर बोला नहीं बस आजमाता ही रहा”

 प्रेम के हर रूप को कवि ने अपनी ग़ज़लों में उतारा है. प्रेम पत्र लिखने की कश्मकश को बयां करती ये पंक्तियाँ

“सिहर उठती है मेरी उँगलियाँ कैसे कलम थामूँ

उसे अब प्यार का ख़तकिस तरह पहला लिखा जाए”

 प्रेम में प्रेमी अपने प्रिय की उपस्थिति को महसूस करना चाहता है किसी भी रूप में. इस भाव की पराकाष्ठा देखिए

“कुछ न कुछ तो ऐ सितमगर भेज दे

ख़त नहीं तो चंद पत्थर भेज दे

आहटें, दस्तक, वो अपनी थपकियाँ

आज कोई मेरे दर पर भेज दे”

प्रेम जब शब्दों में ढाला जाए तो वह स्वतः ही ग़ज़ल की निष्पत्ति करती है

“वो ग़ज़ल हो जाएगी इक बार तू

बात कोई गुनगुनाकर भेज दे”

 इसी तरह

“ये ग़ज़ल मेरी कहाँ है, लब तो

बात तेरी ही गुनगुनाते हैं”

 और अंत में विशुद्ध प्रेम का चरम इन पंक्तियों में परिलक्षित होता है.

“मेरे सपने तेरी आँखों में हैं

तेरे-मेरे भी अजब नाते हैं”

 कवि ने प्रेम को जिया है, महसूस किया है और उसका दंश भी सहा है. कवि की पैनी नज़र और संवेदनाएं उसके सामजिक सरोकारों से भी अछूती नहीं रही हैं. समाज में व्याप्त अनियमितताओं, भ्रष्टाचार  और गलत परिपाटी को बहुत ही सादे अंदाज़ में व्यक्त करता है.

“सवेरा बाँटने के जुर्म में पकड़ा गया जो कल;

वो सूरज आज है हाज़िर अंधेरों की अदालत में”

 इसी तरह

“भीड़ ने मुजरिम को मौके पे तो पकड़ा था मगर

वो अदालत में कभी क़ातिल नहीं समझा गया”

 धर्म-जाति की कटुता ज़हर बनकर हमारी सोच में घर कर चुकी है. किसी भी त्योहार पर किसी अनहोनी की आशंका कवि को व्यथित करती है.

“काँच के टुकड़े, छूरे, पत्थर सड़क पर देखकर

हमने जाना शहर में कल फिर कोइ त्यौहार था ”

 कवि एक गंभीर व्यक्ति हैं. व्यर्थ प्रलाप उन्हें पसंद नहीं तभी वह कहते हैं

“मैं तो चुप हूँ किन्तु मेरी बोलती हैं चुप्पियाँ

धीरे-धीरे मुझको मुझमें खोलती हैं चुप्पियाँ”

 एक जगह वो और कहते हैं

“अल्फ़ाज़ ही होते हैं शमशीर सरीखे सुन

अल्फ़ाज़ के हाथों में शमशीर नहीं होती”

 कवि स्वयं को स्वयं में टटोलता है, देखता है और ऐसा वही व्यक्ति कर सकता है जो तटस्थ भाव से सत्य का मूल्याकन रखने की सामर्थ्य रखता हो.

“खुली रही तो रोशनी ने कर दिया अंधा

जो आँख बंद की, पूरा जहान देख लिया”

 कवि ज़मीन को ही अपनी पृष्ठभूमि समझता है. वह स्वयं का महिमामंडन नहीं करना चाहता है.

“कच्चे रस्ते अगर नहीं आते

तुमको फिर हम नज़र नहीं आते”

 इसी के परिप्रेक्ष्य में एक और सुंदर भाव देखिए

“तुम्हारे लिए है फकीरों की कुटिया

मैं कुटिया को लेकिन महल लिख रहा हूँ

 साहित्य क्षेत्र में सब कुछ अच्छा नहीं है यह बात कवि जानता भी है और समझता भी है की किस कदर दूसरों की रचनाओं से शब्द चुरा-चुरा कर नई रचनाएं सृजित की जाती हैं.

“गज़लें चुरा-चुराके मशहूर होने वाले

शब्दों की रहज़नी से फुर्सत मिले तो आना”

 जिस तरह से पेड मीडिया अपना काम कर रहा है वह जग जाहिर ही है चूंकि कवि स्वयं एक प्रतिष्ठित पत्रकार रहा है तो वह इन स्थितियों को समझता है तभी वह कहता है

“आवाज़ दे रही है गिरवी कलम तुम्हारी

ख़बरों की सनसनी से फुर्सत मिले तो आना”

 कवि की दृष्टि व्यापक है वह समाज को समाज को हर कोण से देखने की सामर्थ्य रखता है तो उतनी ही तटस्थता से अपने अंतस में भी झांकता है. वह वही कहता है जो वह सोचता है, अनुभव करता है. अपनी चेतनता में ग़ज़लों के माध्यम से आनंद का सृजन करने वाले चेतन एक सशक्त हस्ताक्षर हैं. 24 वर्षों के पत्रकारिता के अनुभव के बाद उनका यह प्रथम संग्रह प्रकाशित हुआ है जो यह प्रदर्शित करता है की वह कितनी लगन, तन्मयता और पूर्णता से अपने ध्येय को सिद्ध करते हैं. इनकी गज़लें बहुत सारगर्भित हैं जो पाठक के मन को झिन्झोड़ती हैं, कचोटती हैं तो कहीं प्रेम के आलिंगन और सूफियाने अंदाज़ से पाठक को संतोष भी देती हैं. बावजूद इसके कुछ गज़लें निराश करती हैं, कुछ शेर उतने प्रभावी नहीं लगते. इसका तात्पर्य यह नहीं की उन ग़ज़लों में, शेरों में भाव नहीं है पर जब आप किसी कवि की उत्कृष्ट रचनाओं को पढ़ते हैं, उससे एकाकार हो जाते हैं तो आपकी अपेक्षाएं भी बड़ी हो जाती हैं. शायद इसी अपेक्षा के कारण  कुछ रचनाओं को वह सम्मान नहीं प्राप्त हो पाता जितनी की अन्य रचनाओं को. इस बात को चेतन जी स्वयं भी स्वीकारते हैं और यही स्वीकारोक्ति उन्हें अलग आयाम में  स्थापित करती है.

“कहने को हमने कह दीं कितनी ही गज़लें लेकिन

कुछ शेर ही हैं अच्छे, मतला है कोइ कोइ”

 वह अपने कवि दायित्व को निभाते भी हैं और कर्म सिद्धांत के प्रति अपनी प्रतिबद्धता भी जाहिर करते हैं.

“अब इनकी क़िस्मत है चाहे जितनी दूर तलक जाएँ

मैंने कोरे काग़ज़ पर अल्फ़ाज़ के पंछी छोड़े हैं”

 अगर पुस्तक के अंत में या पृष्ठ पर ही कुछ क्लिष्ट उर्दू शब्दों के अर्थ दे दिए जाते तो उन पाठकों को सुविधा होती जो उर्दू के शब्दों से उतने परिचित नहीं हैं.

निश्चित रूप से यह संकलन संग्रहणीय है. चेतन जैसे कवि इस समाज की आवश्यकता हैं. वह सृजन करते रहें, अपने कवि धर्म का निर्वाह करते रहें और साहित्य प्रेमियों को अपनी ग़ज़लों की नेमत से नवाजते रहें यही कामना है.

अरविन्द भट्ट

arvindkrbhatt@gmail.com

9811523657

News Reporter

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