देहरादून की सुपरिचित कवयित्री डाॅली डबराल की दो मनमोहक कविताएँ

चक्रव्यूह….
सात द्वारों के चक्रव्यूह में
 पल-पल पिसती नारी
 पहला द्वार …
सेनानायक सा पिता सिर पीटता पुत्री आगमन पर
 तंज कसता पत्नी पर
 सभी कोसते नवजात को
 न किन्नर! न बधाई !
न लड्डू न पंडित न कुंडली
 न मेहमानों का लगता जमघट
 बस सात द्वारों के चक्रव्यूह में पल-पल  पिसती  नारी …

दूसरा द्वार…
 सेनापति है भाई !
कहां गई ?कहां रूकी?
 क्यों गई? क्यों हंसी? कहां थी सूरज के छिपने तक?
 क्यों बोली? किस से बोली? 
क्यों किया श्रृंगार?
 क्या खरीदा? क्यों खरीदा?
 यह मत पहन ,वह मत ओढ़
  हर प्रश्न से छलनी
 पल पल जूझती नारी…
 साथ द्वारों के चक्रव्यूह में पल-पल पिसती नारी.

 तीसरा द्वार 
सामने है शिक्षक 
कभी कठोर बन हाथों पर डंडी लहराता
 कभी लोलुप सी दृष्टि डाल
 विषय से हटकर समझाता
 आंखों ही आंखों में करता इशारे 
कभी कम अंक देने को धमकाता
 परीक्षा पुस्तकों और प्रश्न पत्र की कशमकश में 
सकुचाती धकियाती नारी…
 सात द्वारों के चक्रव्यूह में पल-पल पिसती नारी..

 चौथा द्वार
 प्रहरी बना चौकस है पति
 कौन आया.. कौन गया.. क्या पकाया.. क्यों पकाया .
मां की सेवा, बाबूजी की दवा
 ननद के व्यंग.. सास के ताने..  दहेज के उलाहने
 बच्चों की अदावतें ..
 तीखे कटाक्षों  से बिंधती
 सुलगती ,बरसती नारी 
सात द्वारों के चक्रव्यूह में पल-पल पिसती नारी

 पाँचवा द्वार ..
रास्ता रोकते से सुहाग के सात बंधन 
माथे की बिंदिया
 मांग का सिंदूर 
पांव के बिछिये.
 हाथ के कंगन
 गले पड़ा मंगलसूत्र
 नाक की लौंग
 हाथ की मेहंदी
 विवश सी जकड़ी इनके मोह जाल में
 छटपटाती, मन को मारती .
सात द्वारों के चक्रव्यूह में
 पल-पल पिसती नारी

 छटा द्वार …
खड़ा है पुत्र पहाड़ सा
 रास्ता रोक
 लड़ने को तैयार
 बहू से कुछ मत कह 
कुछ मत पूछ 
नाती नतने पाल..
 खाना बना सबको खिला
 कहीं मत जा
 पड़ी रह एक कोने में
 सहती कटु वाक्य
 निरीह बेचारी अबला नारी
 सात द्वारों के चक्रव्यूह में पल-पल पिसती नारी..

 सातवां द्वार 
आ गया है बुढ़ापा
 सिर पर केश नहीं 
आंखों में रोशनी नहीं
 मुंह में दांत नहीं
 कान सुनते नहीं पहचानने की सामर्थ्य नहीं स्मृति नहीं कोई आस नहीं सखी कोई पास नहीं… 
 फिर भी जिजीविषा 
 की राह में..
घिसट रही है नारी…
सात द्वारों के चक्रव्यूह….में पल पल पिसती नारी…

तुम और हम!
जैसे चाँद-सूरज,
हमारा आकाश भी एक
पर खिलते अलग अलग क्यों हैं?
तुम और हम!
जैसे नदी के दो किनारे
जो कभी मिलते ही नहीं
भावनाओं का बहता जल
हमें स्पर्श करता हुआ
दूर निकल जाता है,
कभी गीला, कभी सूखा
छोड़ जाता है,
पर ठहरता क्यों नहीं?
तुम और हम!
जैसे धरती और आकाश
कभी मिलते ही नहीं
मिलें तो मरीचिका सा
एक सुन्दर क्षितिज
लुभाता सुहाता तो बहुत है
पर बनता यथार्थ क्यों नहीं?
तुम और हम!
जैसे रेल की पटरी
सफर में भागते दौड़ते से
कभी जुड़ते ही नहीं
बीच पड़े नुकीले कंकड़
जख्म ही देते हैं,
पर शून्य को भरते क्यों नहीं?
तुम और हम!
बस स्वीकृत से
कुछ सामाजिक सम्बोधन
सभा में, समारोह में
दुःख में सुख में
दर्द में प्यार में
एक दूसरे के….
पूरक बन जाते हैं
फिर उलझते क्यों हैं?
( काव्य संग्रह ‘अनछुए अहसास’ से )

News Reporter

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