जब गांधी जी बोले- ‘बिल्ली के गले में घंटी बांधने जैसी है हिन्दी’

भाषा को लिपियों में लिखने का प्रचलन सर्वप्रथम भारत में ही हुआ। इसके हमारे पास बहुत से ऐतिहासिक साक्ष्य हैं और भारत से इसे सुमेरियन , बेबीलोन और यूनानी लोगों ने सीखा। देवनागरी एक वैज्ञानिक लिपि है। लिपि के विकास की प्रक्रिया में सबसे पहले चित्रात्मक , फिर भावात्मक उसके बाद भावचित्रात्मक और इसके बाद अक्षरात्मक लिपियों का विकास माना जाता है। भाषा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देवनागरी अक्षरात्मक लिपि है। जैसा बोला जाता है वैसा ही लिखा जाता है। देवनागरी में वर्ण और अक्षर सिलेबिल हैं इसमें स्वर भी है और व्यंजन भी। यही एक मात्र ऐसी लिपि है जिसके जिसके उच्चारण और लेखन में एकता है। एकात्मवाद है और लिपि तो आत्मा का एक आकार है जो हृदय से दूसरे हृदय की यात्रा है। देवनागरी उस समुद्र की तरह है जिसमें कई नदियों का संगम है। चाहे भारत की विभिन्न भाषाएं हो या विश्व की कई देशों की भाषाएं उसकी जड़े देवनागरी  लिपि से ही जुड़ी हैं।जहाँ जहाँ भारतीय मूल के लोग हैं वहां वहां हिंदी है। वे सब देवनागरी से परिचय रखते हैं और देवनागरी को आत्म सात करते हैं विशेषकर मारिशश ,सूरीनाम, फिजी, गायना, त्रिनिदाद आदि में।
एक प्रश्न यह भी उठता है कि भारत तो स्वयं विभिन्न भाषाओं बोलियों का देश है ।  मगर भारत  में अनेक भाषाओं का होना या विश्व में अनेक भाषाओं का होना एक समस्या नहीं वरन उसकी अलग अलग लिपियों का होना एक समस्या ज़रूर है, गांधी जी ने जब 1940 गुजराती भाषा की पुस्तक को देवनागरी लिपि में छपवाया तो उन्होंने कहा कि एक लिपि पर तो बातचीत ख़ूब होती है लेकिन” बिल्ली के गले में घण्टी कौन बांधे पहल कौन करे। अगर देवनागरी लिपि अगर विश्व में “वसुधैव  कुटुम्बकम” को अनुप्राणित करे तो पूरा विश्व एक लिपि का परिवार हो जाएगा… मग़र हम यह पहल तभी कर सकते हैं जब यह संकल्प सबसे पहले अपने देश में ले कर आएं जहाँ कुछ अलग अलग क्षेत्रीय बोलियों ने अपना स्थान बना रखा है हम उस निजी  स्वार्थ से  बाहर निकल कर यंत्रालय , मंत्रालय और उच्च शिक्षा में शोधों में हिंदी को सर्वमान्य बना कर सबसे आगे रखे यह हमारा पहला कदम होगा। यह सुखद लगता है जब पूरे विश्व में बोली जाने वाली भाषा के क्रम में हिंदी को दूसरा स्थान प्राप्त हो… विश्व के 206 से अधिक देशों में हिंदी हिंदी बोलने वाले लोग हैं  हिंदी जानने वालों की संख्या दिनोदिन बढ़ रही है मग़र थोडी कसक यह होती है कि सयुक्त राष्ट्र संघ में मंदारिन, अंग्रेजी , स्पेनिश,रूसी,फ्रेंच कुल छः भाषाएं ही सम्मिलित हैं।
ये वे भाषाएं हैं जो अपने अपने देशों की राष्ट्र भाषाएं हैं.. और हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा में सम्मिलित होने से पहले अपने देश की राष्ट्रभाषा तो बनानी ही पड़ेगी । इस कार्य में सिर्फ बुद्धिजीवी ,मसिजीवी, या सिर्फ हिंदी की सेवाधर्मियों का ही काम नहीं वरन राजनैतिक और प्रशाशनिक  स्तर पर भी लोगों को जागना पड़ेगा। जाती धर्म सम्प्रदाय क्षेत्र के सकुंचित सोच के दायरे से ऊपर उठ कर आगे यह कदम तो उठाना ही पड़ेगा ।   हिंदी को अपने ही देश में  इतना  संघर्ष करना पड़ रहा है …हिंदी की लिपि देवनागरी एक मनोवैज्ञानिक लिपि है जो मष्तिष्क को सदैव सक्रिय रखता है। और यह सक्रियता एक न एक दिन संयुक्तराष्ट्र संघ का हिस्सा बनेगी। आज के भूमंडलीकरण में हिंदी को लोकप्रिय बनाने में एक बहुत बड़ा कारण हिंदी फिल्में.. और संगीत तथा बच्चों से जुड़े तमाम कार्यक्रम , रियल्टी शो वगैरह हैं जो वैश्विक स्तर पर जाने अनजाने इसके महत्व को सभी के दिलों से जोड़ रहे हैं .. आज कम्प्यूटर पर इंग्लिश से हिंगलिश तक का सफ़र बड़ा सुखद लगता है यह तकनीकी रूप से अंग्रेजी पर विजय ही है। आज का युग फ्यूजन का युग है। युवा वर्ग को कई विषयों में दक्षता हासिल करना ज़रूरी है। सजग व्यक्ति जानता है कि हिंदी और अधिक उन्नति दे सकती है अतः वह हिंदी सीख व प्रयोग कर सामर्थ्य बढ़ा रहा है
और मीडिया जगत ने बख़ूबी आत्मसात किया। शिवपूजन सहाय ने कहा ह कि” हम हिंदी वालों के हृदय में किसी सम्प्रदाय किसी भाषा किसी लिपि से रंच मात्र भी ईष्या द्वेष या घृणा नहीं। यह बताना ज़रा सा प्रासंगिक लगता है कि इस देश में कई सौ वर्षों तक फ़ारसी राजभाषा रही फिर भी हिंदी अपनी लिपि के साथ बनी रही.. मुगलकाल में हर पढा लिखा व्यक्ति फ़ारसी जानता था यह कहावत साक्षी है कि ” हाथ कंगन को आरसी क्या पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या” क्या हुआ फ़ारसी का वह नहीं रही मग़र हिंदी रही.. अंग्रेजो के काल में अंग्रेजी राजभाषा रही.. इतने भाषाई आक्रमण के बाद भी वह हिंदी का स्थान नहीं ले सकी..  यह हिंदी की जिजीविषा है यह सभी के हृदय से जुड़ी हुई है यह जन भाषा है। देवनागरी एक एकता की लिपि है जहाँ एकता है वहां कोई भी संक्रमण कुछ नहीं कर सकता। क्योंकि यह परिवर्तनशील भी है…इतिहास के हर मोड़ पर  हिंदी के लोकप्रिय बने रहने का कारण इसकी लिपि में लचीलापन है तथा इसकी वैज्ञानिकता और ध्वन्यात्मक होना है। आज एक बहुत बड़ा योगदान हमारे माननीय प्रधानमंत्री मोदी जी का है, जिनके हिंदी के प्रयोग से हिंदी को अंतराष्ट्रीय गौरव प्राप्त हो रहा है। यह अविष्मरणीय योगदान कभी स्वामी विवेकानंद ने दिया जिस पर पूरा विश्व नतमस्तक रहता है। यह थोड़ा दुःखद लगता है कि कुछ घरेलू समीकरणों ने, षड़यन्त्रों ने , घातों प्रतिघातों ने देवनागरी के पैरों में बेड़िया बांधने की कोशिशों में लगी है मग़र हिंदी अपनी देहरी से निकल कर ग्लोबल हो चुकी है। यह एक शुभ संकेत है! कि आज वैश्विक स्तर पर हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ती जा रही है..

शैलजा सिंह
गीतकार एवं साहित्यकार

News Reporter

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