जनचेतना के सुकवि डाॅ. अशोक कुमार गदिया की संदेशपरक कविता

बदलते परिवेश
ज़माना बदल रहा है।
जमाने के दस्तूर बदल रहे हैं। मान्यताएँ एवं रीति-रिवाज़ बदल रहे हैं।
जीवन मूल्य और कर्तव्य बदल रहे हैं।
लेन-देन, व्यापार, व्यवसाय,
उद्योग धन्धे बदल रहे हैं।
रहन-सहन, खान-पान, खेल-कूद,
व्यायाम, आमोद-प्रमोद एवं
मनोरंजन के तौर-तरीके बदल रहे हैं।
आचार-विचार, व्यवहार एवं शिष्टाचार बदल रहा है।
शिक्षा, संस्कार, पठन-पाठन, लेखन एवं
स्वाध्याय बदल रहा है।
बोल-चाल, पहनावा एवं पौशाकंे बदल रही हैं।
मित्रता, रिश्तेदारी, आपसी सम्बन्ध बदल रहे हैं।
अब चल रही है आपाधापी,
मारामारी, धोखाधड़ी, दिखावा, झूठ,
फरेब, जालसाजी,
मिलावट एवं कमतोल।
अब जी रहे हैं भय, आतंक एवं डर में।
अब रक्षक ही भक्षक बन रहे हैं।
मार्गदर्शक पथ भ्रष्ट हो रहे हैं।
समाज सेवक, लूट और भ्रष्टाचार में लिप्त हो रहे हैं।
अब धर्म जोड़ नहीं तोड़ रहा है।
धर्म के ठेकेदार अपनी-अपनी आतंक,
घृणा एवं हिंसा की दुकानें सजाए बैठे हैं।
दिन-प्रतिदिन मानवता को बेच रहे हैं।
अब सरकार चलाने वाले
अपना राजधर्म भूलकर
जनता को बेवकूफ बनाकर
हर तरीके से लूटने में लगे हैं,
जो जितनी सफाई से लूट रहा है
वह उतना ही सफल सरकार चलाने का पुरस्कार पा रहा है।
रिश्ते-नाते, आपसदारी, सद्भाव,
सहयोग, सहकार, मित्रता, दया,
करूणा, सदाशयता, बेमानी हो गये हैं।
कहीं देखने को नहीं मिलती है,
कहीं देखने को मिलती है तो
उसकी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ती है।
आजकल ज़िन्दादिली, निर्भीकता,
बहादुरी, त्याग, बलिदान के जज़्बे की
समाज एवं सरकार कीमत लगाने लगे हैं।
समाजसेवा एवं धार्मिकता के नाम पर
धोखाधडी, लूट एवं
यौन शोषण का कारोबार चल रहा है
और दिन दूना, रात चैगुना बढ़ रहा है।
रोज़ नये-नये बाबा अवतरित हो रहे हैं
और रोज पकड़े जा रहे हैं।
हर नये बाबा का इतिहास
पिछले बाबा से भयंकर एवं चैंकाने वाला होता है।
अब तो मन्दिर, मस्जिद,
गुरुद्वारे एवं गिरजाघर भी सुरक्षित नहीं रहे हैं।
वहां पर भी लूट-खसोट एवं
व्यभिचार का खुला खेल चल रहा है।
विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय,
गुरुकुल एवं मदरसे तो पहले ही बर्बाद हो चुके हैं।
वहां शिक्षा एवं संस्कार गायब हो गये हैं।
वहां पर होड़ मची है-
अच्छे से अच्छे नौकर बनाने की
नेक इन्सान बनाने की नहीं।
आजकल होड़ मची है-
सफल इंसान बनने की,
अच्छा इन्सान बनने की नहीं
जो जितनी ज्यादा सफाई से
झूठ बोल सकता है,
जितनी ज्यादा चालाकी से
अपना काम करवा सकता है,
जितना ज्यादा लूट सकता है,
वह पैमाना है सफल इन्सान का।
ज़माने का तकाजा हो गया है कि
सिर्फ अपनी सोचो,
किसी भी तरीके से,
किसी भी माध्यम से
ऐन केन प्रकरेण अपना काम कराओ
और अपने आप में जियो।
जैसे ही दूसरों की ओर मदद का हाथ बढ़ाया
या हमदर्दी दिखाई फँस जाओगे,
लूट लिये जाओगे
और ज़माना आपको कहेगा
‘बेवकूफ एवं फुद्दू’
ऐसे हालत में
कैसे बचेगी ईमानदारी एवं सच्चाई
इन्सानियत, प्रमाणिकता, मानवता एचं विश्वसनीयता,
दया, करूणा, मित्रता, सदाशयता,
कृपा, सहकारिता, सहयोग,
संवेदनशीलता, आपसी भाईचारा,
प्रेम, सदाचार, त्याग, बलिदान, स्वामीभक्ति,
समाजसेवा, देशभक्ति, धर्म, धार्मिकता एवं श्रद्धा के केन्द्र,
साम्प्रदायिक सद्भाव, अनुशासन, किफायत,
मितव्ययिता एवं पर्यावरण संरक्षण,
इन्हें तो बचाना होगा,
इन्हें नये सिरे से फैलाना होगा।
इनका संवर्द्धन करना होगा।
लाख मुसीबत आये,
लाख लोग बेवकूफ कहें
तब भी पागलपन की हद तक जाकर
इन्हें पुनस्र्थापित करना होगा।
वर्ना कैसे बचेगा भारत एवं भारतीयता।
असली भारतीयता तो इनके बचने, बढ़ने और
पुनस्र्थापित होने में ही है।
यही हमारी पहचान है,
यही हमारी संस्कृति है,
यही हमारे संस्कार हैं,
इसी में हमारा भला है,
और विश्व का कल्याण है।।

डाॅ. अशोक कुमार गदिया
कुलाधिपति, मेवाड़ विश्वविद्यालय,
चित्तौड़गढ़, राजस्थान

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