प्रसिद्ध शायर उत्कर्ष ग़ाफिल के दो कोमल गीत

गीत-1 
शब्द यहाँ गीत के 
हार गए जीत के
भाव सभी मर्म के 
सत्य-सुधा-धर्म के 
कुंद हुए इस तरह 
अर्थ कहीं खो  गए

आस गयी आस की  
गूँज उठी त्रास की
दर्प-दशा  साथ है 
दंश सजा माथ है
चार दिशा देखिये   
सर्प मुखर हो गए

प्रात नहीं, रात है
आज समय घात है 
मौन अधर हैं यहाँ 
कौन कहे कब कहाँ 
स्वप्न-सुघर नैन में
दफ्न हुए, सो गए 

झूठ निरा सत्य है   
तथ्य महज़ कथ्य है   
देख मगर पीर ये    
आह -बुझे तीर ये    
ज़ब्त नहीं कर सके  
दर्द उठा, रो गए

गीत-2
आह की परछाइयों में 
दर्द की गहराइयों में 
बेकसी के शोर में बस !
आरज़ू बोते रहे हम 
उम्र-भर रोते रहे हम….

डूबना था ज़िंदगी में
प्यार की मीठी नदी में 
पर सुलगती प्यास के ही 
पाँव को धोते रहे हम
रेत  के सोते रहे हम
उम्र-भर रोते रहे हम…

यौवना के भाल -सी थी 
रेशमी रूमाल -सी थी 
उस मृदुल मन-कल्पना के
बोझ को ढोते रहे हम 
नेह को खोते रहे हम
उम्र-भर रोते रहे हम…

आंसुओं की धार में नित
पीर के त्योहार में  नित
मुस्कुराना भूलकर भी 
भाव के तोते रहे हम
ख़त्म यूं होते रहे हम 
उम्र-भर रोते रहे  हम
आरज़ू बोते रहे हम

 

 

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