पढ़िये युवा कवि अरविन्द भट्ट की कविता

आना कभी

आना कभी मेरे पास

यूँ ही टहलते-टहलते

बैठना कहीं थोड़ी देर

किसी पेड़ की छांव तले.

और देखना यत्र तत्र

चटकती लकड़ियों के बीच

दहकते ज्योतिपुंज को,

जली-अधजली लकड़ियों को

उनसे उठती धुएं की धुंध को.

हो सके तो और समीप आना मेरे पास

और देखना

दहकती ज्वालाओं के शेष को,

धूल की मानिंद बिखरी राख के ढेर को

और राखों में तलाशते, बीनते

बदहवास से कुछ लोगों को भी.

आना कभी मेरे पास

दिखलाऊँगा अन्तिम क्रीड़ास्थल के

इस अंतिम आयोजन को, उत्सव को

और देखना काँधे पर हिचकोले खाती

निर्जीव शय्याओं को भी.

सुनाऊँगा प्रयाण का अन्तिम जयघोष

और सुनना रूदन और सिसकियों से

भर्राए कण्ठों को भी.

आना अपने अतीत के साथ

भविष्य की उत्कंठा लिए

और टटोलना अपने वर्तमान को

यहीं बैठकर.

सब देखना, सब सुनना

और अनुभव करना जीवन के सार को

इसके अघोषित अवसान को.

आज तुम भले ही न आओ

भले ही देखना न चाहो

ये अंतिम आयोजन, उत्सव

पर न चाहते हुए भी तुम्हे

आना ही होगा मेरे पास

काल के रचे किसी क्षण में,

भले ही क्रीड़ास्थल का स्वरुप भिन्न होगा

या आयोजन की रूपरेखा

पर तुम्हे आना ही होगा चाहे-अनचाहे

अथवा नियति के वशीभूत

और बनना ही होगा पात्र

इस रंगभूमि में

मेरी शमशान भूमि में.

-अरविन्द भट्ट

 

News Reporter

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