सुपरिचित कवयित्री इंदु शर्मा की दो मधुर कविताएँ

1.
बलिदानियों के टूटे जा रहे सपन ,खुशियाँ सभी की आज हो गई ं दफन।
कहाँ जाके शिकवा शिकायत करें,माली जो बनाया वही रोंदता चमन।
आज राजनीति का चलन देखिए, चारों ओर घोटाले गबन देखिए।
कुर्सियों की लगने लगीं हैं बोलियाँ, चारों ओर घूमें, डाकुओं की टोलियाँ।
उनके घरों में सोना चाँदी बरसे, आम आदमी तो रोटियों को तरसे।
आज वीर कर्ण जैसा दानी चाहिए, नेता बोस जैसा बलिदानी चाहिए।
बँटने न पाए कहीं लाडला वतन। धूल में न मिल जाए कीमती रतन।

कहलाता साहित्य समाज दर्पण, स्वार्थ हेतु जिसका किया है अर्पण।
दूषित हुआ है आज मंचों का स्वभाव, कवि हो गया है जैसे शेयरों का भाव।
वाणी माँ की आँखों से हैं अश्रु बहते, आधुनिक कवि की कहानी कहते।
आज मीरा, महादेवी, पंत चाहिए, तुलसी, कबीर जैसा संत चाहिए।
वाणी पुत्र कुछ तो जतन कीजिए, देश हित थोड़ा सा मनन कीजिए।

2.
कोई सागर से मोती ले आता है।
कोई किनारे ही बैठा रह जाता है।
कोई चिंता में जलकर खुद को खाक करे,
और कोई तपकर कुन्दन बन जाता है।।
मुँह माँगे परिणाम किसे कब मिलते हैं।
लक्ष्य सुमन तो श्रम बूँदों से खिलते हैं।
व्यर्थ उलाहना हम देते उस ईश्वर को।
सुख दुख तो जीवन में सबको मिलते हैं।
जो निज साहस का परचम फहराता है,
विश्व युगों तक गीत उसी के गाता है।।
अपने कर्तव्यों का तुझको ध्यान रहे।
मानव की मर्यादाओं भान रहे।
समय दिखाए रूप कुरूप भले कितने,
लेकिन तेरी अपनी कुछ पहचान रहे।
पग पग पर ठुकराए जाते हैं पत्थर,
किन्तु कोई पत्थर ईश्वर बन जाता है।।

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