बदलते हुये युग में शिक्षा का प्रारूप भी बदला जाये यह आवश्यकता है वर्तमान युग की। शिक्षा सिर्फ रोजगार परक ही नहीं होनी चाहिये अपितु वह मूल्यापरक, गुणात्मक व नैतिक मूल्यों से परिपूर्ण होनी चाहिये।
स्कूल काॅलेजों में विद्यार्थियों को जो शिक्षा प्रदान की जानी चाहिये उसे हम मुख्यतः दो भागों में विभाजित कर सकते हैं:-
1. रोजगार परक शिक्षा – जो विद्यार्थी को जीवन यापन की सुविधा प्रदान करती है।
2. मूल्यपरक शिक्षा – ऐसी शिक्षा जो विद्यार्थी को संवेदनशील नागरिक बना सके।
सर्वप्रथम विद्यार्थी को जो शिक्षा प्रदान की जानी चाहिये उसमें उन सब चीजों का अध्ययन समायोजित होना चाहिये जिससे वह एक सादर डिग्री प्राप्त करके कहीं नौकरी करने योग्य बन सके। काॅलेज का जो पाठ्यक्रम होता है उसमें थ्योरी के साथ-साथ प्रैक्टिकल ट्रेनिंग पर ज्यादा जोर दिया जाना चाहिये और इसके साथ-साथ विद्यार्थी को हुनरबन्द बनाना भी आज के युग में बहुत जरूरी है। हर पाठ्यक्रम में Skill Development को भी शामिल किया जाना चाहिये और इसके साथ-साथ ही कुछ थोड़े समय की और कुछ लम्बे समय की टेªनिंग का भी प्रावधान जरूर होना चाहिये। एक किताबी ज्ञान विद्यार्थी के जीवन में बहुत जरूरी है और उसको प्राप्त करने के लिये निर्धारित पाठ्यक्रम पढ़ना और उसका ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। लेकिन उसी शिक्षा को पूर्णरूपेण उपयोगी बनाने व अच्छा रोजगार प्राप्त करने के लिये जरूरी है कि किताबी ज्ञान के साथ उसकी प्रैक्टिल ट्रेनिंग प्राप्त करना! क्योंकि आज के प्रतियोगात्मक युग में जब तक पूरी काबलियत व जानकारी को प्रदर्शित न किया जाये किसी भी क्षेत्र में प्रवेश करना और वहाँ लम्बे समय तक बने रहना बहुत ही मुश्किल काम है। इसलिये ऐसा पाठ्यक्रम जिसमें ट्रेनिंग का part ज्यादा हो। आने वाले समय के लिये वह ज्यादा उपयोगी होगी।
प्रैक्टिकल ट्रेनिंग देने से स्वाभाविक है कि बच्चा पढ़ाई को और अपने विषय को अधिक अच्छी तरह से व गहराई से समझ पायेगा और अपना कार्य ज्यादा कुशलता से कर पायेगा। जिसका लाभ उसको तो होगा ही बल्कि जिस कम्पनी व संस्था में वह काम करेगा वहाँ भी उसकी विशिष्ट योग्यता का पूरा लाभ लिया जा सकेगा और उसके द्वारा किये गये कुशल कार्य की वजह से कंपनी भी लाभान्वित हो पायेगी।
बच्चों की शिक्षा में तो ट्रेनिंग सम्मिलित हानी ही चाहिये। इसके साथ ही उनको प्रशिक्षित करने वाले प्रशिक्षकों की भी समय-समय पर ट्रेनिंग करवायी जानी चाहिये जिससे वह भी अपनी पुरानी योग्यता को पुनः स्थापित कर सके और समय की मांग के अनुसार नये पाठ्यक्रम, नई विधि, नई योजना की भी जानकारी उनको मिलती रहे। शिक्षा को गुणात्मक बनाने के लिये उसका प्रयोगात्मक एवं क्रियात्मक होना जरूरी है जिससे बच्चा स्कूल काॅलेज में सिर्फ थ्योरी के माध्यम से अधकचरा ज्ञान ही न प्राप्त कर सके बल्कि उसे संम्पूर्ण ज्ञान विविधता के साथ प्राप्त हो सके। विद्यार्थी को परम्परिक रूप से जो शिक्षा प्रदान की जाती है। जिसमें स्कूल, काॅलेज जाकर विद्यार्थी कक्षा में बैठकर शिक्षा प्राप्त करता है उसके अलावा बदलते युग में अब शिक्षा की विधि में बदलाव भी बहुत जरूरी है जो विद्याथर््ी स्कूल नहीं जा सकते उनके लिये घर बैठे भी शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिये या उसके घर के आस-पास ऐसे केन्द्र बनाये जाने चाहिए जहाँ जाकर वह शिक्षा प्राप्त कर सके या मोबाइल व इन्टरनेट की सहायता से भी उन्हें शिक्षा प्रदान की जानी चाहिये। रोजगार सम्बन्धी शिक्षा प्रदान कराना तो हमारा प्राथमिक उद्देश्य है ही लेकिन भारत जैसे विकासशील देश में यह भी आवश्यक है कि हम नौजवानों को प्राद्यौगिकी क्षेत्र के विकास की ओर भी अग्रसर करें एवं उन्हें उद्यतन सम्बन्धी जानकारी भी प्रदान करें जिससे वे नये उद्योग लगाने में सक्षम हों इससे न तो उन्हें रोजगार के लिये भटकना पड़ेगा और देश के विकास में भी वे अपना सहयोग प्रदान कर सकेंगे।
दूसरी तरफ रोजगारपरक शिक्षा के साथ-साथ मूल्यपरक शिक्षा भी अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है। हर विद्यार्थी को, देश के नौजवान को एक संवेदनशील नागरिक बनाना भी अतिआवश्यक है। उसने संवेदनशील पैदा करने के लिये, उसमें देश प्रेम की भावना जाग्रत करने के लिये, देश को समृद्धशाली बनाने में योगदान देने के लिये यह जरूरी है कि उसकी शिक्षा कुछ इस तरह की हो कि उसमें उन सब चीजों का समावेश हो जो व्यक्ति में संवेदनशीलता जाग्रत कर सके। इस तरह का चरित्रवान श्रेष्ठ नागरिक बनाने हेतु स्कूल, काॅलेजों की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। स्कूल, काॅलेजों में नियमित क्लासों के अलावा कुछ इस तरह के आयोजन समय-समय पर किये जाने चाहिये जिनसे विद्यार्थी कुछ शिक्षा प्राप्त कर सके। जैसे विद्यार्थी का शारिरिक विकास करने के लिये समय-समय पर खेल प्रतियोगिताओं का आयोजन होना चाहिए जिससे बौद्धिक विकास के साथ-साथ शारिरिक विकास भी हो सके और वह एक सौष्ठव शरीर की स्चना कर सके। समय-समय पर महापुरूषों की जयन्ती भी मनाई जानी चाहिये जिससे विद्यार्थी उनके जीवन चरित्र के बारे में जानकारी प्राप्त कर सके और जान सके कि किस महापुरूष में क्या-क्या खूबियाँ थी जिनकी वजह से हम आज भी उन्हें याद करते हैं और उनके जीवन से उनके द्वारा किये गये कार्यो से शिक्षा प्राप्त कर सके। उनके द्वारा किये गये प्रशंसनीय कार्यों को उनके द्वारा किये गये कार्य से देश की प्रगति व विकास में जो सहयोग मिला, उसको विद्यार्थी अपने जीवन में उतार सके और उसी तरह का आचरण करने का प्रयास करें और देश व समाज के विकास व तरक्की में अपना सहयोग प्रदान कर सके।
गरीबों की सहायता करना, जरूरत मंदो की जरूरतों का ख्याल रखना, बड़ों की इज्जत व सम्मान करना, कभी झूठ न बोलना, हमेशा सत्य का साथ देना, ये सब बातें भी पाठ्यक्रम का एक हिस्सा होनी चाहिये। स्वस्थ प्रतियोगिताओं का आयोजन विद्यार्थियों में किया जाना चाहिये जिसमें यह बताया जाना चाहिये कि प्रतियोगिता सिर्फ जीतने या दूसरों को हराने के लिये ही नहीं बल्कि अपना विकास करने के लिये व दूसरों को भी ऐसा मौका देने के लिये आयोजित की जानी चाहिये।
शिक्षा का अर्थ केवल वस्तुओं या विभिन्न विषयों का ज्ञान मात्र नहीं है। जो शिक्षा सामान्य व्यक्तियों को जीवन संघर्ष हेतु समर्थ नहीं बना सकती, चरित्रवान नहीं बना सकती, संवेदनशील नहीं बना सकती, एक जिम्मेदार नगारिक नहीं बना सकती वह शिक्षा व्यर्थ है।
जो शिक्षा व्यक्ति को अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाती है एवं उसे व्यावहारिक बनाती है और दूसरों को साथ लेकर चलना सिखाती है वही मूल्यपरक व गुणात्मक शिक्षा है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है ’’मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्ति प्रदान करने वाली प्रक्रिया का नाम ही शिक्षा है।’’ शिक्षा के क्षेत्र में यह सर्वमान्य तथ्य है कि बच्चे अपने परिवेश से स्वयं सीखते है बशर्ते की उन्हें समृद्ध परिवेश मिले।
शिक्षा का तात्पर्य मूलतः व्यक्तित्व के समग्र विकास से होना चाहिये।
लेखिका
डाॅ. अलका अग्रवाल
निदेशिका, मेवाड़ ग्रुप आॅफ इंस्टीट्यूशंस
सेक्टर 4सी, वसुंधरा, ग़ाज़ियाबाद