1-
बचपन बहाया मैंने
कागज़ की कश्तियों में,
लड़कपन संभाला था
कलम की बैसाखियों ने ।
कलम किये कितने कलम
प्रगति की राह पर,
मानपत्रों की हर कतरन
रखी संभाल कर ।
प्रकृति का उपभोग किया
आँख मूँद कर ,
क्या घटेगा क्या बढ़ेगा
मूल प्रश्न भूलकर ।
जमा और गुणा किये
उन्नती के आँकड़े,
भौतिकता के युग में
फिर पाँव जा पड़े।
योजनायें अनगिनत
नभ छूने की तैयारी,
इक हाथ में कुल्हाड़
और दूजे में ले आरी।
वन हैं तो जीवन है
आधार मंत्र छोड़ कर,
करने चले सृजन
नियम सृष्टि के तोड़ कर ?
प्राणाधार वृक्षों का
नियंत्रण बिगाड़ कर,
स्तम्भ सृष्टि संतुलन के
रख दिये उखाड़ कर।
चिन दिये घरों पे घर
गहरे खम्भ बीज कर,
धरा का छेद कर सीना
विनाश नींव सींच कर।
उठा था शोर चारों ओर
बन गये बन गये,
किया अनसुना रुदन
कि वन गये वन गये ।
दीवारों के जंगल में
गाँव लुप्त हो गये,
सुमन सुगंध शुद्ध पवन
सभी अल्प हो गये।
घुटने लगा जब दम
मैं सहमी और तड़फड़ायी,
रुकने लगी जब साँस
तब चेतना आई !
आह ! जिस डाल पर था घर
उसे ही काट दिया,
अपने ही पाँव पर
स्वयं प्रहार किया !
चरमराई शाख ढह गई
आ गिरी धरा पर मैं,
आहत अपंग असहाय सी
पथरा गई थी मैं ।
न जड़ न चेतन
जैसी हुई मेरी अवस्था,
निर्बल हुआ हर अंग
और घिर आई शून्यता।
वृक्ष भी था घायल
कुछ छाँव फिर भी रखी सर पर,
जीवन दिया फिर मुझको
अपने श्वास देकर।
जल कर स्वयं लू धूप में
दी मुझको शीतल छाया,
भीगा स्वयं सावन में
और मुझको सदा बचाया।
आँधियों की धूल
मेरे तन से दूर ही रही,
हिमपात में भी मैं
सुरक्षित पड़ी रही।
उदारता देख वृक्ष की
तब मैं लज्जाई,
पाप बोध से गड़ी
मैं न उठ पाई।
साहस कर पूछा वृक्ष से
कि क्यूं मुझको बचाया,
मैंने केवल
तुमको भोगा और सताया।
हलचल हुई
पत्ते से पत्ता सरसराया,
नादान प्रश्न पर
पिता ज्यों मुस्कुराया।
ममता भरी बाहों सी
शाखें आँईं बढ़कर,
बोली कि क्या करोगी
जो दूं फिर एक अवसर।
नन्हा सा एक बीज
मेरे हाथ में दिया,
सार तत्व मेरी मुट्ठी में
फिर थमा दिया।
उस बीज ने
सृष्टी की झलक दिखलाई,
आत्म ग्लानी से रूँधी
और आँख भर आई।
अश्रु पश्चाताप के
बहा कर बीज ले गये,
गोद में धरा की
जन्म लेने को समा गये।
स्नेह स्पर्श पा कर
अँकुरों ने आँख जो खोली,
सृष्टि चक्र चल पड़ा
धरा की भर गई झोली……!!
2-
पुष्प पुंज की सुगंध से महकता हो वतन,
शुद्ध पर्यावरण हो स्वच्छ हो धरा का तन ।
श्वास सबकी घुट रही क्लांत हो रहा है तन,
धूम्र और धूल ले है अटा पड़ा गगन ।
पत्र पुष्प व्यूह से प्रदूषण का हो दमन।
शुद्ध पर्यावरण हो स्वच्छ हो धरा का तन..
घर किसी का टूटता रो रहा किसी का मन,
बाढ़ और सूखे से नष्ट हो रहा चमन ।
वृक्ष मूल बंध से रोक दें धरा स्खलन ।
शुद्ध पर्यावरण हो स्वच्छ हो धरा का तन ..
कोकिला की कूक कोलाहल में क्षीण हो गयी,
पपिहे की राग रगिनी मलिन हो गयी ।
सम्भव है सघन वन से कालरव का आगमन।
शुद्ध पर्यावरण हो स्वच्छ हो धरा का तन ।
वन त्राहि त्राहि कर रहे उपवन कराहते,
पशु सम्पदा को नर असुर बन संघारते ।
हो हरित क्रांति मुक्त भय सभी करे रमन।
शुद्ध पर्यावरण हो स्वच्छ हो धरा का तन ।
उदीयमान व्यथित सूर्य क्षुधित चंद्र सो रहा,
स्वर्णिम अतीत की स्मृति में क्षितिज रो रहा ।
तरुवर भुजा प्रहार से हो कालिमा हनन।
शुद्ध पर्यावरण हो स्वच्छ हो धरा का तन.
अति सुन्दर !