ग़ज़ल
ज़िन्दगी छटपटाती रही रात भर
मुझसे नज़रें चुराती रही रात भर
जिस्म हंसता रहा, खिलखिलाता रहा
रूह आंसू बहाती रही रात भर
गिर गए हाथ से दाने तस्बीह के
मैं ग़ज़ल गुनगुनाती रही रात भर
दर पे आंखें बिछी राह तकती रहीं
आस दिल को दुखाती रही रात भर
चाँद शब भर रहा उसके आग़ोश में
चांदनी दिल जलाती रही रात भर
नींद ज़िद्दी ज़िया कैसी ज़िद पे अड़ी
जुगनुओं को सुलाती रही रात भर
नज़्म
******
अजनबी रिश्ता
***************
जाने क्यों अब मुझे सिगरेट की महक भाती है
मय के प्यालों से भी इक खुश्बू अलग आती है
तेरे ऐबों में कोई ऐब ही नहीं दिखता
मुझको तो जैसे तेरी लत ही लगी जाती है
दिन ढले हूक सी उठती है तेरी बातों की
राह तकती हूँ मैं तन्हाई भरी रातों की
गुफ़्तगू तुझसे तसव्वुर में किया करती हूँ
याद तेरी ही मुझे सुब्ह से मिलाती है
क्या पता तुझसे ही क्यों दर्द कहा जाता है
मैं भिगो दूं तेरे कांधे को दिल ये चाहता है
तुझको इक बात बतानी है ज़रा सुन तो सही
खूब हंसती हूँ तो आंखों में नमी आती है
ख़ुद से ज़्यादा अब तुझे सोचती रहती हूँ मैं
क्या बताऊँ भला क्या खोजती रहती हूँ मैं
नाम क्या दूं क्या कहूँ अपने नए रिश्ते को
तुझमें हर एक ही रिश्ते की झलक पाती हूँ
साथ तेरे ये मेरा वक़्त गुज़र जाता है
तू नहीं होता तो हर लम्हा ठहर जाता है
प्यार तुझसे तो यक़ीनन नहीं मुझको लेकिन
फिर भी क्यों तुझसे जुदाई न सही जाती है
क्या मुझे तुझसे मुहब्बत सी हुई जाती है………