1.
कभी शमा की तरह रोशन हो जलती है ज़िंदगी।
कभी थक कर धीमे से पिघलती है ज़िंदगी।
कभी फिरती है सवालों के बोझ लिए हुए,
कभी जवाबों को संजोए चलती है जिं़दगी।
कभी जोड़ती है मिलकर अजनबियों से नाता,
कभी भटककर कारवाँ से बिछड़ती है जिं़दगी।
कभी खुश है अपने साथ तन्हाई में भी,
कभी हमसफर के निशां ढूँढती है जिं़दगी।
कभी टूटते हैं सपने आंखों में इसके,
कभी नवसपनों को फिर बुनती है जिंदगी।
2.
घिर जाऊँ न अँधेरे में फिर से कहीं,
हर दिन खुद ही जल रही हूँ मैं…
गिर जाऊँ न ठोकर खाकर कभी,
पल-पल अब सँभल रही हूँ मैं…
ढूँढ लाऊँ कहीं से खुद को कभी,
गुज़री राहों पर यूँ चल रही हूँ मैं…
बदल जाए सूरत-ए-हाल मेरा भी,
हर रोज़ ही आइने बदल रही हूँ मैं।