सच्ची शिक्षा वही, जो करे शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक विकास

वर्तमान में देश में मैकाले की शिक्षा पद्धति लागू है। इससे पहले भारतीय शिक्षा नीति देश, काल, सापेक्ष थी। मैकाले को जान-बूझकर ऐसी शिक्षा नीति बनाने का मौका अंग्रेजों ने दिया। उसे विदेश ये भारत भेजा। कहा गया कि हमें भारतीय शिक्षा पद्धति के खिलाफ एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था लागू करनी है, जिससे गरीब व अनपढ़ भारतीय गुलाम बने रह सकें। उनका सम्पूर्ण विकास न होने पाये। काफी खोजबीन व शोध करने के बाद मैकाले ने अपनी एक रिपोर्ट ब्रिटेन भेजी। ब्रिटेन की संसद में इसे पढ़ा गया। रिपोर्ट में मैकाले ने बताया कि भारत में अपनी शिक्षा पद्धति लागू करना बहुत कठिन है। यहां की शिक्षा पद्धति को समूल रूप से नष्ट करने में एड़ी-चोटी का जोर लगाना होगा। रिपोर्ट में मैकाले ने बताया कि भारत के 91 प्रतिशत लोग पहले से ही शिक्षित हैं। नब्बे प्रतिशत क्षेत्र में शिक्षालय बने हुए हैं। ऐसे में ब्रिटेन की शिक्षा पद्धति लागू करना बहुत मुश्किल होगा। लेकिन अंग्रेजों ने मैकाले को अंग्रेजी शिक्षा पद्धति लागू करने के लिए हर संभव प्रयास करने के निर्देश जारी किये। मैकाले ने पहले अपनी कुचालों से भारत के धर्म, संस्कृति, जीवन मूल्यों समेत भारत की मानक प्राचीन शिक्षा पद्धति को जड़ से उखाड फेंकने की साजिश रची। फिर ऐसी ब्रिटिश शिक्षा नीति को लागू किया जिसके जरिये हमें असभ्य साबित किया गया। यह जताया गया कि विश्व स्तर पर हमारी शिक्षा पद्धति अयोग्य है, पिछड़ी हुई है। इसके जरिये औद्योगिक रूप से हम विकास नहीं कर सकते। मैकाले ने अपनी शिक्षा पद्धति को विकासपरक शिक्षा व्यवस्था करार देकर भारत में इसे लागू कराया।
अब मैकाले की शिक्षा नीति के जरिये बहुराष्ट्रीय कम्पनियां हमें गुलाम बनाने पर तुली हैं। विदेशियों की कोशिश है कि भारतीय युवक नौकर बनें, मालिक न बनें। आज दुर्भाग्य है कि विदेशी हमारी शिक्षा नीति का निर्धारण कर रहे हैं, ताकि हमारे नौजवान बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के गुलाम बन सकें। अजीब बात है कि हमारे देश के राजनीतिज्ञ, उद्यमी व नौकरशाह व धनाड्य वर्ग अपने बच्चों को भारत में शिक्षा नहीं दिलाना चाहते। वे अपने बच्चों को पढा़ने के लिए विदेश भेज रहे हैं। ताकि उनके बच्चे भारत में आकर गरीब-असहाय जनता पर अपनी विदेशी शिक्षा की बदौलत हुकूमत कर सकें। उसका अधिक से अधिक शोषण कर सकें। इन सबको हमारी भारतीय शिक्षा व्यवस्था कमजोर दिखाई देती है।
असल में सच्ची और अच्छी शिक्षा वह होती है जो किसी व्यक्ति का शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक विकास कर सके। पहले मदरसों व गुरुकुलों में जो शिक्षा बच्चों को मिलती थी, उससे उनका मानसिक, शारीरिक व बौद्धिक विकास होता था। यह कहां तय होता था कि शिक्षा ऐसी दी जाये जिससे उन्हें नौकरी या प्लेसमेंट मिले। गुरु द्रोणाचार्य ने अर्जुन तो गुरु वशिष्ठ ने मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जैसे शिष्य तैयार किये, इसलिये कि वे समाज व देश की मुख्यधारा से जुड़ सकें। इसलिये नहीं किये थे कि रावण या दुर्योधन का वध कराना है। दुर्योधन व रावण का नाश अर्जुन व श्रीराम के सम्मुख एक चुनौती थी और चुनौती देश, काल, सापेक्ष बदलती है। दोनों का समाज हित में नाश करना अनिवार्य मानव धर्म था, जिसका श्रीराम व अर्जुन ने मर्यादित रूप से पालन किया। ध्यान रहे कि उद्देश्य व चुनौती मिलकर ही शिक्षा बनती है। यही उचित शिक्षा व्यवस्था कहलाती है। हमारे धर्मग्रंथों ने भी ऐसी ही शिक्षा व्यवस्था को मान्यता दी है। यही शिक्षा व्यवस्था वर्ष 1947 से पहले हमारे देश में लागू थी।
लेकिन आज भारतीय विश्वविद्यालयों की शिक्षा का स्तर गिर रहा है। हाल ही में आई एक सर्वे रिपोर्ट में विश्व के सौ विश्वविद्यालय श्रेष्ठ घोषित किये गये हैं। इनमें एक भी विश्वविद्यालय भारत से नहीं है। केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी द्वारा यूजीसी के पूर्व चेयरपर्सन हरि गौतम की अध्यक्षता में गठित विशेष कमेटी ने भी अपनी रिपोर्ट दी है। इसमें यूजीसी के कामकाज पर असंतोष प्रकट किया गया है। रिपोर्ट में यूजीसी के कामकाज को शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने में असफल बताया गया है। रिपोर्ट में सुझाव भी दिये गये हैं कि यूजीसी में आमूल-चूल परिवर्तन किया जाये। इसके अधिकार कुछ खास लोगों तक सीमित न रखे जायें। साथ ही शिक्षा क्षेत्र से जुड़े विद्वानों को प्राथमिकता दी जाये। हो यह रहा है कि यूजीसी, एआईसीटीई, बार कौंसिल, नेक जैसी संस्थाओं का गठन जिस मकसद से किया था, वह मकसद धूमिल हो रहा है। ये संस्थायें मूल्यांकन के नाम पर केवल मल्टीनेशनल कंपनियों में प्लेसमेंट की स्थिति का ही अवलोकन कर रही हैं। क्या मल्टीनेशनल कंपनियों के लिये नौकर तैयार करना ही हमारी शिक्षा या उनपर निगरानी करने के लिए गठित संस्थाओं का मकसद है। इसपर गंभीरता के साथ विचार करने की आज आवश्यकता है।
भारतीय शिक्षा में मूल्यांकन का तरीका भी बदला जाना चाहिये। प्राथमिक, माध्यमिक व उच्च माध्यमिक शिक्षा के स्तर में भी आवश्यक परिवर्तन कर इसकी गुणवत्ता बढ़ाने का प्रयास होना चाहिये। आज मूल्यांकन करने वाले वही पुराने गिने-चुने घिसे-पिटे लोग एवं तरीके विद्यालयों व महाविद्यालयों में आज भी मौजूद हैं जबकि विद्यार्थियों की संख्या पिछले 30 सालों में कई गुना बढ़ चुकी है। ऐसे में न तो विद्यार्थियों के कौशल विकास की बात हो रही है और न ही उनमें उद्यमशीलता का विकास ही किया जा रहा है। इन दोनों गुणों का हमारी शैक्षणिक मूल्यांकन व्यवस्था में कोई मानदंड ही तय नहीं हैं। पहले मूल्यांकन सही करने के लिए कौशल विकास व उद्यमशीलता के मानदंड स्थापित करना अति आवश्यक है। फिर उसी अनुरूप माहौल बनाने की आवश्यकता है।

बेहतर शिक्षा व्यवस्था के लिए कुछ जरूरी सुझाव –
1- बच्चों को हुनरमंद बनाने के लिए दसवीं कक्षा से ही उन्हें जाॅब आॅरियंटेड शिक्षा दी जाये।
2- ऐसी शिक्षा व्यवस्था की जाये जिससे बच्चों का मानसिक, शारीरिक व बौद्धिक विकास हो।
3- ऐसी शिक्षा दी जाये जिससे बच्चे समाज व देश की मुख्यधारा से जुड़ सकें।
4- शिक्षा के मूल आयाम जैसे साहित्य, कला, क्रीड़ा, संस्कृति, इतिहास, अनुसंधान आदि पर विशेष ध्यान दिया जाये। इनकी उचित शिक्षा उचित समय पर उचित बच्चों को विशेष रूप से दी जानी चाहिये। उनपर सरकार एवं समाज को पैसा खर्च करना चाहिये। उनसे अर्थार्जन की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिये।
5- शिक्षा ऐसी हो, जिसमें संप्रेषणीयता का अभाव कतई न हो। इसके लिए गहन अध्ययन जरूरी है। इसके लिये नई पद्धतियों का गठन किया जाना चाहिये।
6- शिक्षा व्यवस्था ऐसी हो, जो बच्चों को सिर्फ मल्टीनेशनल कंपनी का नौकर नहीं बल्कि आत्मविश्वासी, उद्यमशील एवं स्वावलम्बी बनाये।

डाॅ. अशोक कुमार गदिया
कुलाधिपति
मेवाड़ विश्वविद्यालय
गंगरार, चित्तौड़गढ़
राजस्थान

News Reporter

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *