संक्षिप्त परिचय
सेवानिवृत एसोसिएट प्रोफेसर। आठ पुस्तकें प्रकाशित। हरियाणा एनसाइक्लोपीडिया में योगदान। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में 300 से अधिक रचनाएँ प्रकाशित। अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
गति की गरिमा
कैसा है मौसम
यह कैसी फिजा है
चातक है चुप
न कोयल कूजती है
फूलों से खुशबू आती नहीं है
शिशुओं की किलकारी कहीं खो गई है ।
युवाओं के गालों के
गुलाब हैं गायब
अधरों पे मन के मल्हार नहीं हैं
सिक्कों की खनक,पर हर कहीं है।
दिल की झंकार ,नहीं है नहीं है।
बहता है पानी
फिर सडा़ँध क्यों बनी है
जीवन तो है पर जकड़न घनी है।
जड़ता तोडो़, जरा मुसकराओ।
ग़म के गालों पे गुलाल लगाओ।
निराशा की न करो मिज़ाज पुरसी
बिस्तर उसका
बाहर फिकवाओ।
जीवन इतना निस्सार नहीं है–
हाथ पे धर हाथ बैठ जाएँ।
न कलम थामें न कस्सी उठाएँ।
जीत का ही क्यों करें अभिनंदन
हार को भी जरा
हार पहनाएँ ।
सफलता के आगे लगे पूर्णविराम को
दबंग बन मग से हटाएँ ।
सितार के तारों से धूल हटा कर
वेणु को अधरों पर सजाएँ ।
चहकें,गाएँ औ’ गुनगुनाएँ
बढ़ें आगे और बढ़ते जाएँ
गति की गरिमा को अपनाएँ।
लकीरें
धरा की छाती पर
खींच तलवार से लकीरें
बादशाहों ने दी बदल
जनता की तकदीरें।
भटकाया किसी को
तपते मरुस्थल
बख्शे किसी को
जगमगाते जखीरे
आदमी की मासूम रुह पर
बना लफ्जों से लकीरें
रहबरों ने दी बना
मजहब की तहरीरें।
किसी की मंजिल
मक्का मदीना
किसी का स्वर्ग
गंगा के तीरे।
आदमी के हाथों पर
उकेर चंद लकीरें
मुक्कदर ने बाँटे
कहीं ताज,कहीं तहकीरें।
तरसाया किसी को
महज रोटी के लिए
दे डाली किसी को
यों ही जागीरें।।
बादशाहों ने बदल दी जनता की लकीरे, बहुत खुब। एक भी ऐसा राजा नहीं हुआ जिसने तलवारों की नोंक पर हथेलियों की रेखाओं को विभाजित किया हो
मैंने राजाओं द्वारा भौगौलिक स्थितियों
को बदलने की बात की है।हाथ की लकीरों
को नहीं।वहाँ तो मुक्कदर की भूमिका रहती है।जरा गौर से पढिए।
ओमीश परुथी।
अति सुन्दर सर
बहुत दिनों बाद आज आपकी कविता पढ़ कर
ऐसा लगा जैसे कि मैं ये कविता नहीं पढ़ रही हूं
बल्कि हिन्दू कालेज में एम.ए हिंदी की कक्षा में
बैठ कर आप स्वयं हमें यह कविता सुना रहे हैं।
सर मैं नीतू एम.ए हिंदी 2010-11 के बेच की शिष्या थीं।
नीतू जी
आपकी टिप्पणी पढ़कर मुझे बहुत
अच्छा लगा।बहुत बहुत धन्यवाद।
दोनों कविताएँ बहुत अच्छी हैं।
आदरणीय पाठक जी
आपका हृदय से आभारी हूँ।
ये कविताये जीवन दर्शन को सहज भाव में दिखलाती है l बहुत मार्मिकता झलकती है l निगूढ़ अर्थ छिपा हुआ है l पहचान की जरूरत है l धन्यवाद
शुक्रिया भारद्वाज जी।
बहुत खूब लिखा है आपने। दोनों ही कविताएँ मन को छू गईं ।
साधुवाद!
बहुत बहुत शुक्रिया शुचि जी।
ओमीश परुथी।
बहुत बहुत शुक्रिया शुचि जी।
ओमीश परुथी।