सजग पत्रकार एवं युवा कवयित्री आयुषी त्यागी की दो मनोरम कविताएँ

1-कमजोर हूँ, ये न समझना

कमजोर हूँ, ये न समझना
यह बात अपने ज़ेहन में न उतारना
पीती हूँ ज़हर हर रात
हर सुबह एक नई जंग लड़ती हूँ
देखती हूँ खुली आँखों से सपने
और पंख भी कटते देखती हूँ
डरती हूँ, इस समाज में
संभलती हूँ, हर राह में
कोशिश करती हूँ, लड़ मर जाने की
एक चिता की तरह जलती हूँ
बस कुछ वादों के, कुछ इरादों के,
कुछ रस्मों-रिवाजों, कुछ अपने-परायों 
के सामने दबा लेती हूँ, वो आवाज
जो चिखती हुई रूह से निकलती है
उसे छेड़ना मत, न ही जगाना
क्योंकि जिस दिन वो जागेगी
तो वो तुम्हारे कानों के पर्दे फाड़ती हुई
हर बंधन को चीरती हुई, 
सब ‘कुछ’ भुलाकर
यही बात गूँजेगी
की मैं दुर्गा-काली का वंश हूँ।
जो सच्चाई की बुराई पर जीत दिलाती है
जो एक नाश का सर्वनाश कर सकती है
फिर से कह रही हूँ
कमजोर हूँ, ये न समझना
यह बात अपने ज़ेहन में न उतारना

2-मेरे सपने…..

आपने मुझे बड़ा किया,
अपने पैरो पर खड़ा किया,
मेरी हज़ारो गलतियों के बाद भी,
बस एक मुस्कान देकर,
अपने बड़कपन का परिचय दिया,
परवरिश ने आपकी मुझे सोने जितना खरा किया,
अब उसी परवरिश पर भरोसा रख,
मुझे मेरी उड़ान तो भरने दो,
मुझे मेरी मर्ज़ी का आसमान तो चुनने दो,
मुझे मेरे सपने तो बुनने दो |
हक़ अदा किया आपने मेरा साथ निभाने का,
और हर बार गिरने पर मुझे उठाने का,
हक़ अदा किया मुझे दुनियादारी सिखाने का,
हक़ अदा किया आपने मेरा नाम चुनकर,
अब मुझे हक़ अदा कर,
मेरा काम तो चुनने दो,
मुझे मेरी मर्ज़ी का संसार तो चुनने दो,
मुझे मेरे सपने तो बुनने दो |
माना कि आपके फैसलों की बदौलत,
मैं इतना कारगर बन पाया हूँ,
सोचा न था जितना,
उतना हासिल कर पाया हूँ,
सही गलत का भेद जानकार,
आज इतना काबिल बन पाया हूँ,
कि मुझे अब मेरा हमसफ़र तो चुनने दो,
मुझे मेरी मंज़िल तो चुनने दो,
मुझे मेरे सपने तो बुनने दो |

 

 

 

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